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________________ 152 क्षयोपशम भाव चर्चा निश्चय-सम्यक्त्व एवं वीतरागांशरूप निश्चय-चारित्र, कदापि बन्ध के कारण नहीं होते हैं। वे तो संवर-निर्जरा के ही कारण होते हैं। औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक - तीनों प्रकार के सम्यक्त्व परमार्थतः निश्चय-सम्यक्त्व ही हैं, एकरूप (तत्त्वों की याथातथ्य-प्रतिपत्तिरूप) हैं। औपशमिक व क्षायोपशमिक, सादि-सान्त होने से सराग भी कहे जाते हैं, वस्तुतः हैं नहीं। क्षायिक-सम्यक्त्व, सादि-अनन्तकाल तक टिकनेवाला होने से वीतराग-सम्यक्त्व कहा जाता है। सराग-चारित्र के काल में ये तीनों सम्यक्त्व, सराग नाम पाते हैं और पूर्ण वीतराग-चारित्र के काल में इनको वीतराग नाम दिया जाता है। क्षायिक-सम्यक्त्व, अरिहन्त भगवन्तों की नौ लब्धियों में प्रथम लब्धि है और उसकी प्राप्ति चतुर्थादि सप्तमान्त गुणस्थानों में क्षायोपशमिक (कृतकृत्यवेदक) सम्यक्त्व से होती है। सराग-सम्यग्दर्शन कोही व्यवहार-सम्यग्दर्शन एवं सराग-चारित्र को ही व्यवहार-चारित्र संज्ञा भी है। महामुनियों के देवायु आदि प्रकृतियों का बन्ध किस प्रकार होता है, इसे आचार्यदेव स्वयं निम्न शंका-समाधानों द्वारा सिद्ध करते हैं - ननु कथमेवं सिद्ध्यति, देवायुः-प्रभृति सत्प्रकृति-बन्धः / सकल-जन-सुप्रसिद्धो, रत्नत्रय-धारिणां मुनिवराणाम् / / अर्थात् कोई पुरुष शंका करता है कि रत्नत्रयधारी श्रेष्ठ मुनियों के समस्त जन-समूह में भलीभाँति प्रसिद्ध देवायु आदि उत्तम प्रकृतियों का बन्ध, पूर्वोक्त प्रकार से कैसे सिद्ध होगा? इसका समाधान आचार्य भगवन्त अगले श्लोक में करते हैं - रत्नत्रय-हेतु-निर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य। आस्रवति यत्तु पुण्यं, शुभोपयोगोऽयमपराधः।। अर्थात् इस लोक में रत्नत्रयरूप धर्म, निर्वाण का ही हेतु/कारण होता है, अन्य गति आदि का नहीं और जो रत्नत्रय के साथ पुण्य का आस्रव होता है, सो यह अपराध शुभोपयोग का ही है। भावार्थ यह है कि ‘कारण भिन्न तो कार्य भिन्न' - इस अटल जैन न्याय को समझनेवाले अब समझ गये होंगे कि क्षयोपशमिक चारित्र क्या चीज है? उसे मिश्रभाव क्यों कहा है?
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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