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________________ जैन साहित्य का समाजशास्त्रीय इतिहास जैन धर्म में पर्व, तीर्थ, मंत्र आदि का माहात्म्य बढ़ने के साथ ही तीर्थयात्राओं का भी महत्व बढ़ने लगा। __ जैन श्रमण संध की व्यवस्था भी परिवर्तित हो चुकी थी जैन श्रमण वनों, उद्यानों की अपेक्षा ग्रामों एंव नगरों में रहते थे। जिन्हें "वसतिवास" कहते थे। नगरों एवं ग्रामों में अनेक मंठों एंव मन्दिरों का निर्माण प्रारम्भ हो गया था जिन्हें राज्यवंशों एवं जनसाधारण द्वारा प्रचुर मात्रा में दान दिया जाने लगा। जैन गृहस्थ लोगों को पहले उपासक-उपासिका कहा जाता था। उन्हें धर्मश्रवण नियत रुप से किये जाने एवं धार्मिक सिद्धान्तों का पालन करने के कारण श्रावक एंव श्राविका कहा जाने लगा। श्रमणों एवं गृहस्थ श्रावकों के बीच निकट सम्पर्क ने जैनसंध में मतभेद उत्पन्न कर दिया। ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों से ही जैन श्रमण ज्ञानाराधना से दूर होकर मन्दिर निर्माण एंव मूर्तिपूजा की ओर प्रवृत्त हो गये। जिसके लिए वे दानादि ग्रहण करते थे। परिणामतः सांतवी शताब्दी के पश्चात् जिनप्रतिमा, जिनालय निर्माण, पूजा माहात्म्य एंव विधिविधान आदि पर विशेषकर साहित्य निर्माण होने लगा। इस समय संधों में अनेक गण, गच्छ, अन्वयों, कुलों आदि का उदय होने लगा, इसके साथ ही प्रत्येक गण गच्छ आदि की अपनी अलग अलग परम्पराऐं एंव विधिविधान मान्य होने लगे। जैनागम का श्रवण एंव पठन पाठन जो अब तक श्रमणों एंव आचार्यो के लिए नियत था वह अब श्रावक-श्राविकाओं के लिए भी स्वीकृत हो गया इसके लिए पौराणिक महाकाव्य एंव कथा साहित्य की रचना की गई। 5 वीं से 10 वीं शताब्दी के मध्य की गयी ये रचनाएं परवर्ती रचनाओं का आधार बनीं। राजनीतिक एंव सामाजिक परिवर्तन के साथ ही सम्प्रदायों के संगठन में अत्यधिक परिवर्तन हुए। परिणाम स्वरुप दिगम्बर एंव श्वेताम्बर सम्प्रदायों द्वारा राजकीय वर्ग को अपनी ओर आकर्षित करके राज्याश्रय प्राप्त करके दक्षिण एंव पश्चिम में अनेक ज्ञानसत्र एंव शास्त्रभंडारों की स्थापना की गयी। इन शास्त्र भंडारों में आगम, न्याय-साहित्य, व्याकरण एंव दार्शनिक साहित्य का संकलन एंव इनके ज्ञान देने की व्यवस्था की गयी। सामाजिक दृष्टिकोण से सामाजिक स्थिति सुदृढ़ न थी। समाज अनेक जातियों, उपजातियों एंव व्यावसायिक जातियों में विभक्त था। मानव मानव के बीच सामाजिक एंव धार्मिक क्षेत्रों में भेदभाव बढ़ गया था। कर्मकाण्डों एंव यज्ञ याज्ञिकों की बहुलता से ब्राह्मण वर्ग में छूआ-छूत पनप चुका था। क्षत्रिय वर्ग जो राज्यों के अधिपति होते थे उनसे ये आधिपत्य का अधिकार दूर होने लगा। उत्तरभारत में थानेश्वर के पुष्पभूति वैश्य थे, मौखरी एंव तत्पश्चात् गुप्त राजा अक्षत्रिय थे। बंगाल के पाल एंव सेन राजा शूद्र थे। कन्नोज के गुर्जर प्रतिहार परमार एंव चौहान विदेशी
SR No.032855
Book TitleJain Sahitya ka Samajshastriya Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Agarwal
PublisherClassical Publishing Company
Publication Year2002
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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