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________________ 39 श्रावक-वर्णनाधिकार प्रतिमा प्रतिज्ञा को कहते हैं, इसका विशेष स्वरूप कहते हैं / दोष बुद्धि करके चार प्रकार के त्रस जीवों का घात और बिना प्रयोजन स्थावर जीवों का घात भी नहीं करता, उनका रक्षक होता है। ___ भावार्थ :- कोई ये कहे कि तुझे पृथ्वी का राज्य देता हूं, तू अपने हाथ से इस चींटी को मार दे, और यदि नहीं मारेगा तो तेरे प्राणों का नाश कर दूंगा अथवा तेरा घर लूट लूंगा, ऐसा राजा आदि का हट जाने तब यदि मैं इसका कहा न करूंगा तो इसने जो विचार किया है, वही करेगा, ऐसा जानकर धर्मात्मा पुरुष ऐसा विचार करते हैं कि सुमेरुवत ( इन्द्रियों की अपेक्षा एक से अधिक इन्द्रियों वाला होने से बहुत ऊंचा) इस त्रस जीव पर शस्त्र कैसे चलाया जा सकता है? अतः शरीर धन आदि जाता है तो जाओ, इनकी इतनी ही स्थिरता थी ( मेरे साथ संयोग था)। इसमें मेरा क्या वश है, मेरे रखे कैसे रहेंगे? तथा यदि स्थिरता (आयु) अधिक है, तो राजा अथवा देव के द्वारा भी कैसे मारा, छीना जावेगा ? यह नि:संदेह है। अत: मुझे जरा भी भय आदि कर जीव का घात करना उचित नहीं है / ___ यदि कोई ऐसा कहता (समझाता) है कि अभी तो ये कहता है वैसा करलो, फिर तुम कुछ प्रायश्चित रूप अपनी रक्षा कर लेना (प्रायश्चित कर पुनः प्रतिज्ञा ले लेना), तो धर्मात्मा पुरुष उसे इसप्रकार कहता है - हे मूढ ! जिन धर्म की प्रतिज्ञाएं ऐसी नहीं होती कि शरीर या धन आदि के लिये उनका उल्लंघन किया जावे / बाद में इन प्रतिज्ञाओं को पुन: ग्रहण कर लेना, तो यह उपदेश तो अन्य मतों का है, जैन मत में नहीं / ऐसा जानकर वह धर्मात्मा पुरुष जीव को मारना तो दूर ही रहे , अपने परिणामों को अंश मात्र भी चलायमान नहीं करता / कायरता के वचन भी नहीं बोलता। हलन-चलन आदि क्रियाओं में तथा भोग संयोग आदि क्रियाओं में संख्यात-असंख्यात त्रस जीव और अनन्त निगोद जीवों की हिंसा होती है, परन्तु इसे जीव मारने का अभिप्राय नहीं है, केवल हलन-चलन
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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