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________________ 40 ज्ञानानन्द श्रावकाचार आदि क्रिया का ही अभिप्राय है, परन्तु (जीवन के लिये आवश्यक) वह क्रिया त्रस जीव की हिंसा के बिना बन नहीं सकती, अतः (अभिप्राय न होने के कारण) इसे त्रस जीव का रक्षक ही कहा जाता है। पांच प्रकार के स्थावर जीवों की हिंसा का इसको त्याग नहीं है, तो भी अभिप्राय स्थावर जीवों की भी रक्षा का ही है / अत: इसको अहिंसा व्रत का धारी कहते हैं, ऐसा जानना / (2) सत्य व्रत आगे सत्य व्रत का विशेष वर्णन करते हैं / (इस व्रत का धारी) झूठ बोलने पर राजा दण्ड दे अथवा जगत में अपयश हो, ऐसी स्थूल झूठ नहीं बोलता है, तथा ऐसे सत्य वचन भी नहीं बोलता है जिन सत्य वचनों के बोलने से अन्य जीव का बुरा हो / जो सत्य कठोरता सहित हो, ऐसा सत्य वचन भी नहीं बोलता / कठोर वचनों से दूसरे के प्राण (तो) पीडित होते (ही) हैं, स्वयं के भी प्राण पीडित होते हैं / सत्य का ऐसा स्वरूप जानना। (3) अचौर्य व्रत __ आगे अचौर्य व्रत का स्वरूप कहते हैं / (इस व्रत का धारी) प्रत्यक्ष की चोरी तो सर्व प्रकार ही तजता है / चोरी की वस्तुयें खरीदता नहीं, मार्ग में पडी पाई जाने वाली वस्तु को भी ग्रहण नहीं करता / डंडी नहीं मारता (कम नहीं तोलता), वस्तु की अदला-बदली नहीं करता, धन नहीं चुराता, राज्य का टैक्स/कर चुराता नहीं / चोरों से व्यापार नहीं करता / तोल में (वस्तु) कम नहीं देता, न अधिक लेता है / वस्तुओं में मिलावट नहीं करता / मुनिमात (किसी अन्य के व्यापार का हिसाब आदि रखने) का काम करते एवं घर का व्यापार भी करते किसी किस्म की चोरी नहीं करता है / इत्यादि सर्व प्रकार की चोरी का त्याग करता है। ____ भावार्थ :- मार्ग की मिट्टी का अथवा नदी, कुये आदि के जल आदि का इसे बिना दिये ग्रहण होता है (अर्थात ये दो वस्तुयें तो किसी की
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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