SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वंदनाधिकार 19 सारे जगत की सामग्री चेतन रस के अभाव में जडत्व स्वभाव को लिये फीकी है, जैसे नमक के बिना की अलूनी रोटी फीकी लगती है। ऐसे ज्ञानी पुरुष कौन हैं जो ज्ञानामृत को छोडकर उपाधिरूप आकुलता सहित दुःख को चाहे; कभी न चाहे / इसीप्रकार शुद्धोपयोगी महामुनि ज्ञानरस के लोभी, आत्मिक रस के आस्वादी निज स्वभाव से हटते हैं तब इस (उपरोक्त) प्रकार विलाप करते हैं / ___ आगे मुनियों के स्वरूप का और भी कथन करते हैं / वे महामुनि मान क्या धरते हैं मानो केवली से या प्रतिमाजी से होड करते हैं / कैसी होड करते हैं ? भगवानजी आपके प्रसाद से मैने भी निज स्वरूप को प्राप्त कर लिया है, इसलिये अब मैंने निज स्वरूप का ही ध्यान किया है आपका ध्यान नहीं किया। आपका ध्यान करने की अपेक्षा मुझे निज स्वरूप का ध्यान करने में विशेष आनन्द आता है। मुझे अनुभव पूर्वक प्रतीति है तथा आगम में आपने भी ऐसा ही उपदेश दिया है। हे भव्य जीवो ! कुदेवों को पूजोगे तो अनन्त संसार में भ्रमण करोगे, नरक आदि के दु:ख सहोगे तथा यदि हमें पूजोगे तो स्वर्ग आदि के मंद क्लेश सहोगे तथा यदि निज स्वभाव का ध्यान करोगे तो नियम से मोक्ष का सुख पाओगे / अत: भगवानजी ! हमने आपके ऐसे उपदेश के कारण ही आपको सर्वज्ञ, वीतराग जाना है तथा जो सर्वज्ञ वीतराग हैं वे ही सर्व प्रकार से जगत में पूज्य हैं - ऐसा आपका सर्वज्ञ वीतराग स्वरूप जानकर ही मैं आपको नमस्कार करता हूं। ___ सर्वज्ञ के बिना तो सर्व पदार्थो का स्वरूप नहीं जाना जा सकता तथा वीतरागता के बिना राग-द्वेष के वश यथार्थ उपदेश दिया नहीं जा सकता। (अन्य स्थानों पर) या तो अपनी सर्व प्रकार से निंदा का ही उपदेश है, या सर्व प्रकार अपनी बडाई महन्तता का उपदेश है / ये लक्षण तो भली प्रकार कुदेव आदि में ही संभव हैं / भगवानजी ! मैं भी (स्वभाव अपेक्षा अथवा उन कुदेवों की अपेक्षा) वीतराग हूं, अत: मैं अपने स्वरूप की
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy