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________________ 18 ' ज्ञानानन्द श्रावकाचार जाती है / (मुनिराज) गमन करते हुये जीवों की विराधना करना नहीं चाहते अथवा (आवश्यक न होने पर) गमन ही नहीं करते / भूली हुई (अपनी) निधि को ढूंढते जाते हैं (जैसे किसी व्यक्ति की कोई निधि भूल से कहीं गिर गयी हो तो वह उसे खोजने के लिये भूमि पर दृष्टि गडाये इधर-उधर देखता गमन करता है, उसीप्रकार मुनिराज भी उनके गमन करने में जीवों की विराधना न हो इसके लिये भूमि पर दृष्टि गडाये गमन करते हैं, ताकि कोई जीव उनके पांव के नीचे आकर कष्ट न पावे ) / ___ यदि गमन करते-करते ही स्वरूप में लग जावें तो खडे रह जाते हैं, फिर उपयोग वापस नीचे आता है तब फिर गमन करते हैं / कभी एकांत में बैठकर आत्मध्यान करते हैं तथा आत्मिक रस पीते हैं। मुनि का स्वरूप गुप्ति :- जैसे कोई क्षुधा से पीडित (अर्थात) प्यासा पुरुष ग्रीष्म समय में मिश्री की डली घुला शीतल जल (मिष्ट शीतल जल) अत्यन्त रुचि से अत्यन्त शीघ्र-शीघ्र पीता है और अत्यन्त तृप्त होता है, उसीप्रकार शुद्धोपयोगी महामुनि स्वरूपाचरण से अत्यन्त तृप्त हैं बार-बार उसी रस को चाहते हैं / उसे छोडकर किसी काल में पूर्व की वासना के कारण शुभोपयोग में लगते हैं तब ऐसा महसूस करते हैं कि मेरे ऊपर आफत आ गयी है, यह हलाहल विष जैसी आकुलता मुझसे कैसे भोगी जावेगी। अभी मेरा आनन्द रस चला गया है, मुझे फिर ज्ञानरस की प्राप्ति होगी या नहीं। हाय -हाय ! अब मैं क्या करूं, मेरा स्वभाव तो एक निराकुल बाधा रहित, अतीन्द्रिय, अनुपम सुरस पीने का है, वही हमें प्राप्त हो। ___ निज स्वरूप कैसे प्राप्त हो ? जैसे समुद्र में मग्न हुआ मच्छ बाहर नहीं निकलना चाहता तथा बाहर निकलने में असमर्थता महसूस करता है, उसीप्रकार मैं ज्ञान समुद्र में डूबकर फिर निकलना नहीं चाहता / एक ज्ञान रस को ही पिया करूं / आत्मिक रस के बिना अन्य किसी में रस नहीं।
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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