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________________ 300 ज्ञानानन्द श्रावकाचार ___ फिर उन्हें छोडकर आगरा गये। यहां स्याहगंज में व्याकरण के पाठी तथा बहुत जैन शास्त्रों के पारगामी भूधरमल साहूकार से मिले तथा शहर में व्याकरण के पाठी, जैन अग्रवाल धर्मपाल जो मोतीकटला के चैत्यालय में शास्त्र का व्याख्यान करते थे से तथा सौ-दौ सौ साधर्मी भाईयों से मिले। उनसे मिलकर जयपुर आये। इसके बाद शेखावाटी में सिंघाणा नगर जहां टोडरमलजी एक दिल्ली के बडे साहूकार साधर्मी के समीप कर्म-क्रिया (रोजगार) के लिये रहते थे वहां हम गये तथा टोडरमलजी से मिले / नाना प्रकार के प्रश्न किये उनका उत्तर वे “गोम्मटसार” नामक ग्रन्थ के आधार से देते गये। इस ग्रन्थ की महिमा हमने पहले भी सुन रखी थी, उनसे भी विशेष जानी तथा टोडरमलजी के ज्ञान की अद्भुत महिमा देखी। अतः हमने टोडरमलजी से कहा - आपको इस ग्रन्थ का परिचय (ज्ञान) हुआ है / आप द्वारा इसकी भाषा टीका हो तो बहुत जीवों का कल्याण हो तथा जिनधर्म का उद्योत हो / अभी इस वर्तमान काल में काल दोष के कारण जीवों की बुद्धि तुच्छ रह गयी है, आगे इससे भी अल्प रहेगी, अत: ऐसे प्राकृत भाषा के महान ग्रन्थ जिसकी मूल गाथायें एक हजार पांच सौ हैं तथा जिसकी संस्कृत टीका में अलौकिक चर्चा समूह है तथा जो संदृष्टियों तथा गणित शास्त्र की आम्नाय सहित, अठारह हजार पदों में लिखी हुई है, उसका भाव भासित होना महा कठिन है / इसके ज्ञान की प्रवृत्ति बहुत काल से लेकर अब तक नहीं है, तो आगे भी इसकी प्रवृत्ति कैसे चलती रहेगी ? अतः आप इस ग्रन्थ की भाषा टीका करने का कार्य शीघ्र करें / आयु का भरोसा नहीं है / ___पीछे हमारी प्रेरणा के निमित्त से उनको टीका करने का अनुराग हुआ। पहले भी इसकी टीका करने का उनका विचार था ही, हमारे
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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