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________________ परिशिष्ठ -1 301 कहने से विशेष मनोरथ हुआ। तब शुभ दिन मुहूर्त में सिंघाणा नगर में उनने टीका करना प्रारम्भ किया। वे तो टीका करते गये तथा हम पढते गये। तीन वर्ष में “गोम्मटसार' ग्रन्थ की अडतीस हजार, “लब्धिसारक्षपणासार" ग्रन्थ की तेरह हजार, “त्रिलोकसार” ग्रन्थ की चौदह हजार पद प्रमाण, सब मिलाकर पैंसठ हजार पद प्रमाण में चारों ग्रन्थों की टीका हुई। ___ इसके बाद जयपुर आये तथा “गोम्मटसार"आदि चारों ग्रन्थों की टीकाओं को शोधकर उनकी बहुत प्रतियां बनवाई / जहां सहेली (गोष्ठियां) थीं वहां-वहां जगह-जगह भिजवाई (विराजमान कराई)। इसप्रकार इन ग्रन्थों (टीकाओं) का अवतार हुआ / अभी के अनिष्ट काल में टोडरमलजी को ज्ञान का क्षयोपशम विशेष हुआ था / इस गोम्मटसारजी ग्रन्थ का पढ़ना पांच सौ वर्ष पहले था, बाद में बुद्धि की मंदता के कारण भाव सहित पढना रह गया (बंद हो गया), अब पुनः इसका उद्योत हुआ। ___ वर्तमान काल में यहां धर्म का निमित्त है वैसा अन्यत्र नहीं है / वर्तमान काल में जैन धर्म की प्रवृत्ति कैसी पाई जाती है, उसका विशेष वर्णन आगे इन्द्रध्वज पूजा विधान में लिखेंगे / वहां से जानना / ___फिर काल दोष के कारण बीच में एक उपद्रव हुआ, वह बताते हैं / संवत् 1817 (एक हजार आठ सौ सतरह) के वर्ष में अषाढ मास में अपने (ब्राह्मण) मत में कट्टर तथा पाप मूर्ति एक श्यामराम नाम का ब्राह्मण उत्पन्न हुआ / वह राजा माघवसिंह का गुरु था, उसने राजा को वश में किया तथा जिनधर्म से द्रोह करके नगर के तथा सारे ढूंढार प्रदेश के जिन मंदिरों को नष्ट किया / सब को वैष्णव बनाने का उपाय किया / जिसके कारण लाखों जीवों को महाघोर दुःख हुआ तथा महापाप का बंध हुआ / यह उपद्रव डेढ वर्ष तक चला।
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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