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________________ 236 ज्ञानानन्द श्रावकाचार साधन बनता था, अत: इसका उपकार मानकर इसे रखने का उद्यम बने तो अच्छा है, इसमें हानि तो कुछ है नहीं / उससे कहते हैं :- हे भाई ! तुमने जो कहा उसे तो हम भी मानते हैं / मनुष्य पर्याय में शुद्धोपयोग का तथा ज्ञानाभ्यास का साधन होता है एवं ज्ञान-वैराग्य को बढाने इत्यादि अन्य भी अनेक गुणों की वृद्धि होती है; वैसी अन्य पर्याय में दुर्लभ है। अपने संयम आदि गुण रहते शरीर रहे तो भला ही है / मुझे शरीर से कोई बैर तो है नहीं, पर यदि यह नहीं रहता है तो अपने संयम आदि गुणों को निर्विघ्नपने रखने के लिये इस शरीर का ममत्व अवश्य छोडना चाहिये / शरीर के वश संयम आदि गुणों को कदापि नहीं खोना चाहिये। जैसे कोई रत्नों का लोभी पुरुष अन्य देश से आकर रत्नद्वीप में फूस की झोंपडी बनाता है तथा इस झोंपडी में रत्न ला-लाकर एकत्रित करता है। पर यदि झोंपडी में आग लग जावे तो वह बुद्धिमान पुरुष ऐसा विचार करता है कि किस प्रकार अग्नि को बुझाया जाकर रत्नों सहित इस झोंपडी को बचाया जा सकता है ? यदि झोपडी रहे तो इसके आश्रय से बहुत रत्न एकत्रित करूंगा / इसप्रकार यदि वह पुरुष अग्नि के बुझती जानता है तो रत्नों को रखते हुये उसे बुझाता है / पर यदि कोई ऐसा कारण देखे कि रत्न जाने पर ही झोपडी रह सकती है, तो कभी झोंपडी रखने का प्रयत्न नहीं करता, झोंपडी को जल जाने देता है तथा आप सम्पूर्ण रत्नों को लेकर उस देश से चला जाता है वह एक दो रत्न बेचकर अनेक प्रकार के वैभव भोगता है, अनेक प्रकार के स्वर्णमय-रूपामय महल मकान बाग आदि बनवा लेता है तथा कुछ समय उनमें रहकर रंग-राग सुगन्धमय आनन्द क्रीडा करते हुये निर्भय हुआ अत्यन्त सुख से रहता है। उसीप्रकार भेद-विज्ञानी पुरुष हैं वे शरीर के लिये अपने संयम आदि गुणों में अतिचार भी नहीं लगाते हैं / ऐसा विचार करते हैं कि संयम आदि
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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