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________________ समाधिमरण का स्वरूप 237 गुण रहेंगे तो मैं विदेह-क्षेत्र में जाकर जन्म लूंगा तथा तीर्थंकर केवली भगवान के चरणारविंद में क्षायिक सम्यक्त्व के प्रारम्भ का निष्ठापन करूंगा तथा पवित्र होकर तीर्थंकर देव के निकट दीक्षा लूंगा / नाना प्रकार के दुर्धर तपश्चरण ग्रहण करूंगा तथा जन्म मरण के संचित पापों का अतिशयरूप से नाश करूंगा। अनेक प्रकार के संयम ग्रहण करूंगा तथा अनेक प्रकार के मनवांछित प्रश्न करूंगा / उन अनेक प्रकार के प्रश्नों के उत्तर सुनकर सर्व पदार्थो का तथा काल का स्वरूप जानूंगा / राग-द्वेष संसार के कारण हैं उनका शीघ्र अतिशय रूप से जड-मूल से नाश करूंगा / श्री परमदयालु, आनन्दमय, केवली भगवान, अद्भुत लक्ष्मी से संयुक्त जिनेन्द्रदेव के स्वरूप को देखकर दर्शन रूप अमृत का अतिशय रूप से अर्चन करने से मेरे कर्म-कलंक रूपी रज धो-धाकर मैं पवित्र होऊंगा। ___सीमन्धर स्वामी आदि बीस तीर्थंकर तथा बहुत से केवली तथा अनेक मुनिराजों के समूह का दर्शन करूंगा। जिसके अतिशय से शुद्धोपयोग अत्यन्त निर्मल होगा तथा स्वरूप में विशेष लगूंगा एवं क्षपक श्रेणी चढने के सम्मुख होऊंगा। पश्चात् बहुत शक्तिशाली कर्मो के सम्मुख डटा रहकर उन्हें पटक-पटक कर एक-एक को जडमूल से नाश कर केवलज्ञान प्राप्त करूंगा / जिससे एक ही समय में समस्त लोकालोक के त्रिकाल सम्बन्धी चराचर पदार्थ मुझे भी दिखने लगेंगे तथा ऐसा ही स्वभाव फिर शाश्वत बना रहेगा। मैं जो ऐसी लक्ष्मी का स्वामी हूँ उसे इस शरीर से ममत्व कैसे हो सकता है ? सम्यग्ज्ञानी पुरुष ऐसा विचार करता रहता है कि मुझे दोनों ही प्रकार आनन्द है, यदि शरीर रहेगा तो फिर शुद्धोपयोग की ही आराधना करूंगा तथा यदि शरीर नहीं रहा तो परलोक में जाकर भी शुद्धोपयोग की ही आराधना करूंगा / मुझे तो अपने शुद्धोपयोग की आराधना में किसी
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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