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________________ समाधिमरण का स्वरूप 235 भ्रमण करता है। ___ ऐसी अद्भुत महिमा पूर्वक विराजमान मेरा स्वरूप-परमदेव इस शरीर के भीतर शरीर से भिन्न अनादि काल से स्थित है / मेरा तथा इस शरीर का पडौसी जैसा सम्बन्ध है / मेरा स्वभाव अन्य प्रकार का तथा इसका स्वभाव अन्य प्रकार का है / मेरा परिणमन अन्य प्रकार तथा इसका परिणमन अन्य प्रकार है / अब यह शरीर गलन स्वभाव रूप परिणम रहा है तो मैं क्यों सोच (चिंता) करूं, क्यों दु:खी होऊ ? मैं तो तमाशा देखनेवाला दर्शक रूप से स्थित हूं। ___ मुझे इस शरीर से राग-द्वेष नहीं है / राग-द्वेष जगत में निंद्य है, परलोक में महादुःखदायी है तथा ये राग-द्वेष हैं वे मोह के कारण ही उत्पन्न होते हैं / जिसके मोह का नाश हो गया है उसके राग-द्वेष का भी नाशं हो गया। मोह के कारण ही पर-द्रव्य में अहंकार-ममकार उत्पन्न होते हैं / ये पर-द्रव्य हैं वे मैं ही हूं, ऐसा तो अहंकार तथा ये द्रव्य मेरे हैं ऐसा ममकार उत्पन्न होता है / पुनः वे सामग्री चाहने पर तो आती नहीं तथा छोडने पर जाती नहीं, इसकारण ही यह आत्मा खेद-खिन्न होता है। ___ यदि उस समस्त सामग्री को पराये की जानें तो उनके आने-जाने पर विकल्प क्यों करे ? मेरे मोह का तो पहले ही भलीभांति नाश हो चुका है, मैने तो शरीर आदि सामग्री को पहले ही पराई जानी थी, अतः अब मुझे इस शरीर के जाने का विकल्प काहे को उत्पन्न हो ? विकल्प उत्पन्न कराने वाले मोह का तो मैं भलीभाँति नाश कर चुका हूँ। अत: मैं निर्विकल्प, आनन्दमय, निज स्वरूप को बराबर सम्हालता तथा याद करता स्वभाव में ही स्थित हूँ। ___ यहाँ कोई कहता है :- यह शरीर तुम्हारा तो नहीं है, परन्तु इस शरीर के निमित्त से यही मनुष्य पर्याय में भली प्रकार शुद्धोपयोग का
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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