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________________ 234 ज्ञानानन्द श्रावकाचार नाश हो, ऐसा जानना। पर आकाश के स्वभाव में तथा मेरे स्वभाव में एक विशेष अन्तर है / आकाश तो जड मूर्तिक पदार्थ है तथा मैं चैतन्य, अमूर्तिक पदार्थ हूँ। मैं चैतन्य हूँ तभी तो यह विचार पाया कि यह आकाश जड है तथा मैं चेतन हूँ। मुझमें यह जानपने का गुण प्रकट विद्यमान दिखाई देता है पर आकाश में तो यह गुण दिखाई देता नहीं है, यह नि:संदेह है। ___ मैं और कैसा हूं ? जिसप्रकार दर्पण स्वच्छ शक्ति का पिंड है, उसकी स्वच्छ शक्ति उसकी स्वच्छता स्वयमेव ही है जिससे घट-पट आदि पदार्थ उसमें झलकते हैं, दर्पण पदार्थों को स्वयमेव झलकाता है, उसीप्रकार शुद्धात्मा में भी ऐसी स्वच्छ शक्ति व्याप्त होकर स्वभाव में स्थित है / सर्वांग में एक शुद्धता स्वच्छता भरी हुई है / पर स्वच्छता अलग है तथा ज्ञेय पदार्थ अलग हैं / स्वच्छ शक्ति का यह स्वभाव है कि उसमें पदार्थो का प्रतिबिम्ब आ ही जाता है। ____ मैं और कैसा हूं ? अनन्त अतिशय से निर्मल साक्षात ज्ञानपुंज बना हूँ तथा अत्यन्त शान्त रस से पूर्ण भरा हूँ, एक अभेद निराकुलता से व्याप्त हूँ / मेरा चैतन्य स्वरूप और कैसा है ? अपनी अनन्त महिमा पूर्वक विराजमान है, किसी की सहायता की आवश्यकता ही नहीं है, ऐसे स्वभाव को धारण किये हुये स्वयंभू हूँ। मेरा स्वभाव एक अखंड, ज्ञानमूर्ति, पर-द्रव्य से भिन्न, शाश्वत अविनाशी परमदेव ही है / इससे उत्कृष्ट देव किसे मानूं ? यदि तीन लोक में कोई ऐसा हो तो मानूं / यह ज्ञान स्वभाव और कैसा है ? अपने स्वरूप को छोडकर अन्य रूप नहीं परिणमित होता है, निज स्वभाव की मर्यादा को नहीं छोडता है। जैसे समुद्र जल राशि से भरा है, पर अपने स्वभाव (अपनी मर्यादा) को छोडकर आगे गमन नहीं करता है, फिर भी अपनी तरंगावली रूपी लहरों द्वारा अपने स्वभाव (मर्यादा) में ही भ्रमण करता है। उसीप्रकार
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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