SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 232
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 217 स्वर्ग का वर्णन तारक ! जय अष्ट कर्म रहित ! जय ध्यानारूढ ! जय चैतन्यमर्ति ! जय सुधारस मय ! जय अतुल ! जय अविनाशी ! जय अनुपम ! जय स्वच्छ पिंड, जय सर्व तत्व ज्ञायक ! जय अनन्त गुण भंडार ! जय निज परिणति में रमणहार ! जय भव समुद्र के तिरनहार ! जय सर्व दोष हरण हार ! जय धर्मचक्र के धारणहार ! ___ हे देव ! आप ही पूर्ण देव हैं / हे प्रभो ! आप ही देवों के देव हैं / हे प्रभो ! आप ही मोक्षमार्ग को चलाने वाले हैं / आप ही भव्य जीवों को प्रफुल्लित करने वाले हैं / हे प्रभो ! आप ही जगत का उद्धार करने वाले हैं / आप ही जगत के नाथ हैं / आप ही भव्य जीवों का कल्याण करने वाले हैं। आप ही दया भंडार हैं / हे भगवान ! समवशरण जैसी लक्ष्मी से आप ही विरक्त हैं / हे प्रभो! आप ही जगत को मोहने में समर्थ हैं / आप ही उद्धार करने में समर्थ हैं / हे प्रभो ! आपका रूप देखकर नेत्र तृप्त नहीं होते। हे भगवान ! आज की घडी धन्य है, आज का दिन धन्य है कि आपके दर्शन प्राप्त किये। आपके दर्शन से मैं कृतकृत्य हुआ, पवित्र हुआ, जो कार्य करना था वह मैने आज किया, अब कुछ कार्य करना रहा नहीं / हे भगवान ! आप की स्तुति करके जिव्हा पवित्र हुई, वाणी सुनकर कान पवित्र हुये, दर्शन करके नेत्र पवित्र हुये, ध्यान करके मन पवित्र हुआ, अष्टांग नमस्कार करके सर्व अंग पवित्र हुये। अब हे भगवान ! मेरे इन प्रश्नों का समाधान कीजिये, आपके मुखारविंद से ही समाधान जानना चाहता हूं। हे प्रभो ! सप्त तत्व का स्वरूप बतावें, चौदह गुणस्थान, चौदह मार्गणा का स्वरूप कहें। हे स्वामी ! अष्ट कर्मों का स्वरूप कहें, उनकी उत्तर प्रकृतियों का स्वरूप कहें। हे स्वामी ! प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग का स्वरूप कहें / हे स्वामी ! काल तथा लोकालोक का स्वरूप कहें, मोक्षमार्ग का स्वरूप कहें / हे स्वामी ! पुण्य-पाप का स्वरूप कहें, चार गतियों का स्वरूप कहें, जीवों की दया-अदया का स्वरूप कहें, देव-गुरु-धर्म का स्वरूप कहें /
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy