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________________ 216 ज्ञानानन्दश्रावकाचार साथ चन्द्रिका गमन करती शोभित होती है उसीप्रकार देव के साथ देवांगना गमन करती शोभित होती हैं / इत्यादि अनेक प्रकार की आनन्द की क्रीडायें कर देव-देवांगनायें मिलकर कौतुहल करते हैं / देवांगनायें नृत्य करती हुई पवन को भूमि पर अथवा आकाश में अपने नेवर आदि पावों में पहनने के आभूषणों की झंकार से चलाती हैं, उसका कथन करते हैं - झिमि-झिमि, झिण-झिण, खिण-खिण, तिणतिण आदि अनेक रागों सहित शब्दों के समूह पांवों के आभूषणों से होते हैं, मानों देव की स्तुति ही करती हों। कोमल सेज पर देव का आलिंगन करती हैं जिससे परस्पर पुरुष (दोनों) के संयोग से ऐसा सुख उत्पन्न होता है मानों नेत्रों को बंद कर सुख का अनुभवन करते हैं - ऐसे शोभित होते हैं / पर तिर्यंन्च अथवा मनुष्य की तरह भोग करने के बाद शिथिल नहीं होते, अत्यन्त तृप्त होते हैं, मानों पंचामृत का पान किया हो। देवों की शक्ति :- देवों में ऐसी शक्ति होती है कि कभी तो शरीर को सूक्ष्म करलें, कभी शरीर को बडा करलें / कभी शरीर को भारी कर लें, कभी हल्का कर लें / कभी आंख फरकने जितने समय में असंख्यात योजन दूर चले जाते हैं, कभी विदेह क्षेत्र में जाकर श्री तीर्थंकर देव की वंदना करते हैं तथा स्तुति करते हैं - देव स्तुति :- जय ! जय ! जय! जय भगवान ! जय त्रिलोकीनाथ ! जय करुणानिधि ! जय संसार समुद्र तारक ! जय परम वीतराग ! जय ज्ञानानन्द ! जय ज्ञान स्वरूप ! जय मोक्ष लक्ष्मी के कंत ! जय आनन्द स्वरूप! जय परम उपकारी! जय लोकालोक के प्रकाशक ! जय स्वभावमय मोदित ! जय स्वपर प्रकाशक ! जय ज्ञान स्वरूप ! जय चैतन्य धातु ! जय अखंड सुधारस पूर्ण ! जय ज्वलित मचलित ज्योति ! जय निरंजन ! जय सहज स्वभाव ! जय सहज स्वरूप ! जय सर्व विघ्न विनाशक ! जय सर्व दोष रहित ! जय नि:कलंक ! जय परस्वभाव भिन्न ! जय भव्य जीव
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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