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________________ स्वर्ग का वर्णन 215 वे देवांगनायें अनेक प्रकार के आभूषण पहन अलग-अलग महलों में जाती हैं तथा दूर से ही देव को हाथ जोडकर तीन बार नमस्कार करती हैं तथा देव की आज्ञा पाकर सेज पर विराजमान होती हैं / देव उन्हें कभी गोद में लेते हैं, कभी हाथों से स्पर्श करते हैं, कभी नृत्य करने की आज्ञा देते हैं / उनमें (नृत्यों में) देवांगनायें ऐसे भाव लाती हैं कि हे प्रभो ! मैं काम से दग्ध हूं, आप भोग कर शान्त करें / आप मेरा काम दाह मिटाने में मेघ के सदृश्य हैं / कभी देव का गुणानुवाद गाती हैं, कभी कटाक्ष करती हैं, कभी आकर एकत्रित होती हैं, कभी पांवों पर लोट जाती हैं, कभी बुलाने पर भी नहीं आती हैं। यह तो स्त्रियों का मायाचार स्वभाव ही है कि मन में तो अत्यन्त चाह रहने पर भी बाहर में अचाह दिखाती रहें / कभी नृत्य करती धरती पर झुक जाती हैं, कभी आकाश में उड जाती हैं अथवा चक्राकार घूमने लगती हैं, भूमि पर अति शीघ्र पावों को चलाती है / कभी देव की ओर देखकर मस्करा देती हैं, कभी वस्त्र से मंह ढक लेती हैं तो कभी वस्त्र को दूर कर मुंह उघाड देती हैं। ऐसा लगता है जैसे चन्द्रमा कभी बादलों से आच्छादित होकर, कभी बादलों से रहित होकर अपने को दिखाता है तो कभी देव देवांगना पर मुट्ठी भर कर फूल फेंक देता है। कभी सुगंध अथवा इत्र आदि से देवांगना के शरीर को भिगो देता है तो कभी देवांगना देव पर फूल उछाल कर भय से दूर भाग जाती हैं। फिर अनुराग पूर्वक देव के शरीर से आ लिपटती हैं, फिर दूर चली जाती हैं। ___ कभी बहुत सी देवांगनायें मिल कर इन्द्र के साथ चक्र में घूमती हैं, कभी ताल, मृदंग, बीन आदि बजाकर देव को रिझाती हैं। कभी सेज पर आकर लेट जाती हैं तो कभी उठ कर भाग जाती हैं तथा आकाश में जाकर नृत्य करने लगती हैं। ऐसा लगता है मानों आकाश में बिजली सी चमक रही हो। आकाश में चन्द्रमा के साथ तारों की पंक्ति शोभित होती है उसीप्रकार देवों के साथ देवांगनायें शोभित होती हैं। जैसे चन्द्रमा के
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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