________________ वंदनाधिकार भगवान को पुन: नमस्कार हो, ऐसे सिद्ध भगवंत जयवंत प्रवर्ते, मुझे संसार समुद्र से निकालें तथा संसार समुद्र में गिरने से रोकें (बचावें)। मेरे अष्ट कर्मो का नाश करें, मुझे कल्याण के कर्ता होवें, मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्ति दें, मेरे हृदय में निरन्तर वास करें तथा मुझे स्वयं जैसा बनावें / सिद्ध भगवान और कैसे हैं ? जिनके जन्म मरण नहीं है, शरीर नहीं है, उनका विनाश नहीं है संसार में पुन: आगमन नहीं है, जिनके असंख्यात प्रदेश ही ज्ञान के आधार हैं। __सिद्ध भगवान और कैसे हैं ? अनन्त गुणों की खान हैं, अनन्त गुणों से पूरे भरे हैं अतः अवगुणों को आने के लिये स्थान नहीं रहा हैं। इसप्रकार सिद्ध परमेष्ठि की महिमा का वर्णन कर स्तुति की। जिनवाणी की स्तुति जिनवाणी का उद्गम :- आगे सरस्वती अर्थात जिनवाणी की महिमा स्तुति करते हैं / जिसे हे भव्य ! तू सुन / जिनवाणी कैसी है ? जिनेन्द्र के हृदय रूपी सरोवर से उत्पन्न हुई है तथा वहां से आगे चली और चल कर जिनेन्द्र के मुखारविंद से निकली तथा गणधर देवों के कानों में जा कर गिरी, गिर कर वहां से आगे चलकर गणधर देवों के मुखारविंद से निकली। निकल कर आगे चलते चलते ये धारा श्रुतसिंधु में जा मिली। ____भावार्थ:- यह जिनवाणी गंगा नदी की उपमा को धारण करती है। जिनेन्द्र देव की वाणी कैसी है ? स्याद्वाद लक्षण से अंकित है तथा दया रूपी अमृत से भरी है एवं चन्द्रमा के समान उज्जवल है तथा निर्मल है / जिसप्रकार चन्द्रमा की चांदनी चन्द्रवंशी कमलों को प्रफुल्लित करती है तथा सर्व जीवों के आताप को हरती है उसीप्रकार ये जिनवाणी भव्य जीवों रूपी कमलों को प्रफुल्लित करती है, आनन्द उपजाती है तथा भव आताप को दूर करती है।