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________________ सम्पादकीय अध्यात्मगर्भित आगम के अभ्यास में रुचि रखनेवाले श्रीयुत ब्र. यशपालजी जैन विगत अनेक वर्षों से करणानुयोग के विषय, गुणस्थान का सामान्य ज्ञान कराने के लिए शिक्षण शिविरों में प्रौढ कक्षायें लेते रहे हैं। ज्यों-ज्यों आपकी यह कक्षा लोकप्रिय होती गई, त्यों-त्यों आपका उत्साह बढ़ता गया। फलस्वरूप आपने एक 64 पृष्ठीय पुस्तक भी गुणस्थान-प्रवेशिका नाम से लिखकर प्रकाशित करा ली। आगम के अध्ययन अध्यापन से विषय का परिमार्जन तो होना ही था / गुणस्थानों की कक्षा लेने से गुणस्थानों से सम्बन्धित विषय-वस्तु और भी विस्तृत रूप में संकलित होती रही, अत: आपने 4 वर्ष बाद पुन: यह निर्णय लिया कि क्यों न इसी गुणस्थान प्रवेशिका को बृहद् रूप दे दिया जाय। अपने लिये गये निर्णय के अनुसार ब्रह्मचारीजी ने संकलित सामग्री को व्यवस्थित रूप देने का काम प्रारम्भ कर दिया और इसके सम्पादन के लिये मुझ से कहा / एक वर्ष के अन्दर ही इस लघु पुस्तिका की लगभग 250 पृष्ठीय पाण्डुलिपि तैयार कर मुझसे पुनः सम्पादन के लिए आग्रह किया। यद्यपि अपने लेखन, अध्ययन-अध्यापन आदि के कारण मेरे पास प्रायः समयाभाव रहता है, फिर भी धर्मस्नेहवश तथा यह सोचकर कि “इस निमित्त से अपने गुणस्थान सम्बन्धी ज्ञान का परिमार्जन हो जायेगा।" मैंने उनका आग्रह सहज स्वीकार कर लिया। ब्रह्मचारी यशपालजी जैन मूलत: कन्नड भाषी हैं और आपकी शिक्षा मराठी माध्यम से हुई, इस कारण कन्नड व मराठी भाषा पर तो आपका विशेष अधिकार है; परन्तु हिन्दी भाषा पर वैसा अधिकार नहीं है, जैसा हिन्दी लेखन के लिए अपेक्षित होता है, इस कारण भाषा संबंधी कमजोरी तो थी ही। विस्तार से पढ़ाने की आदत और अभ्यास होने से प्रश्न भी बड़े और उनके उत्तर भी टेढ़े-मेड़े थे, कुछ पुनरावृत्तियाँ भी थी। विषयवस्तु अत्यन्त उपयोगी होने पर भी उसका प्रस्तुतीकरण कमजोर था। मैंने ब्रह्मचारीजी की सहमति से ही उनके मूलभाव को पूरी तरह सुरक्षित रखते हुए विषयवस्तु एवं भाषा में संशोधन एवं परिमार्जन करके सुगठित एवं सुव्यवस्थित स्वरूप प्रदान करने का प्रयास किया है। प्रसन्नता की बात यह रही कि मैंने जो भी संशोधन किया, सुझाव दिये, उन्हें ब्रह्मचारीजी ने बड़ी सहजता से स्वीकार किया और बारम्बार हार्दिक प्रसन्नता प्रगट की। मुझे इसका सूक्ष्मता से अध्ययन करने से बहुत लाभ हुआ। सब कुछ मिलाकर वस्तुत: यह गुणस्थानविवेचन बहुत ही ज्ञानवर्द्धक बन गया है। आगम व अध्यात्म के महल में प्रविष्ट होने के लिए यह बृहदाकार पुस्तक प्रवेशद्वार सिद्ध होगा। कृति के पढ़ने से ज्ञात होता है कि लेखक ने इस कृति को लिखने एवं विषय-वस्तु के संकलन में अनेक ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया है। एतदर्थ लेखक को जितना धन्यवाद दिया जाये, कम ही होगा। मैं कामना करता हूँ कि लेखक का श्रम सार्थक हो। -सम्पादक : (पण्डित) रतनचन्द भारिल्ल
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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