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________________ यदि हम कषाय-नोकषाय को जाग्रत् न होने दे तो अकेली अशाता या दौर्भाग्य आदि मात्र से क्षमादि आत्मगुण का आवरण होगा ही ऐसा नहीं है। अतः ये घाती नहीं हैं / इसका भाव यह है कि अघाती कर्म का उदय चालू है, अगर नया उदय में आया है फिर भी यदि हम सावधान रहें तो, अशातादि के कारण ज्ञानादि गुण का घात नहीं होता। परावर्तमान-अपरावर्तमान : कुछ कर्म ऐसे हैं जो परस्पर विरूद्ध होने के कारण एक ही साथ यानी एक ही समय बंधे नहीं जाते, या उदय में नहीं आते। वे बारी से बंधते है या बारी से उदय में आते है / अतः इन्हें बंध या उदय में परावर्तमान कहते हैं / जैसे कि शाता वेदनीय के बंध के समय अशाता का उदय नहीं होता / यही स्थिति अशाता के बंध और उदय में है / अतः शाता-अशाता कर्म बंध में भी परावर्तमान, एवं उदय में भी परा० / त्रस दशक के बंध के समय स्थावर दशक का बंध नही होता / जिनका प्रतिपक्षी न हो, वे अपरावर्तमान कहलाते हैं जैसे कि 5 ज्ञानावरण कर्म / बंध में परावर्तमान 70 प्रकृति हैं / इन में 55 नामकर्म की हैं 55 नामकर्म की (4 वर्णादि तथा 2 तैजस्-कार्मण को छोडकर) 33 पिंड प्रकृति + 2 आतप-उद्योत + 20 दो दशक, यों 55 + 7 मोहनीय (रति, अरति, हास्य, शोक तीन वेद) + 2 वेदनीय + 2 गोत्र + 4 आयुष्य 0 131
SR No.032824
Book TitleJain Dharm Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2014
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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