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________________ = 70 / इन जोडों में से बारी से एकेक का ही बंध होता है, दूसरे का नहीं / अतः इन्हें बंध में परावर्तमान मानकर बाकी 5 ज्ञानावरण + 9 दर्शनावरण + 5 अंतराय ये 19 + 19 मोहनीय + 12 नामकर्म = 50 अपरावर्तमान हैं / अर्थात् एक साथ बंध सकते हैं / उदय में परावर्तमान 87 प्रकृतियों में उपर्युक्त 70 में से स्थिरास्थिर, शुभाशुभ कम करके 66 + 5 निद्रा + 16 कषाय = 87 जोड़ों में से एक उदय में हो तो दूसरा उदय में नहीं होता, वे बारी बारी एक-एक ही उदय में आते हैं / अतः वे उदय में परावर्तमान कहलाते हैं / शेष 33 अपरावर्तमान हैं / यहाँ उदय में निद्रादि 5 में से और क्रोधादि 4 में से एक समय एक का ही उदय होता है / क्रोध उदय में हो तब मान नहीं इत्यादि / अतः उन्हें उदय में परावर्तमान कही गयी है / ये ही चार कषाय बंध में अपरावर्तमान होने के कारण क्रोधादि चारों ही एक साथ बंधते हैं। अकेला क्रोध करें या अकेला अभिमान करें फिर भी वहां क्रोध मान आदि चारों कषायमोहनीय कर्म बंधते है / / कर्मबंध का नियम, पुण्य-पाप की चतुर्भंगी : इस के साथ यह समझ लेना चाहिए कि जीव जब शुभभाव में विद्यमान हो, जैसे कि सम्यक्त्व, दया, क्षमा, नम्रता, देवगुरु-भक्ति, व्रत, संयम आदि के शुभ भावों से युक्त हो, तब शुभ कर्म बंधता है / इससे विपरीत हिंसादि पाप, विषयासक्ति, क्रोधादि-कषाय 1328
SR No.032824
Book TitleJain Dharm Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2014
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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