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________________ चतुर्दशः सर्गः 841 [ जो इन्द्रादि देव नलकी छाया (शोभाका लेश, अथवा-दर्पण आदिमें नलका प्रतिबिम्ब ) अर्थात् प्रतिबिम्बगत शोभाको नहीं धारण करते तो भला वे नलकी शोभाको कहां तक धारण कर सकते हैं ? अर्थात् किसी प्रकार नहीं धारण कर सकते / अथवा-देव नलकी कुछ सम्पत्तिको धारण कर लें, किन्तु इस नलकी शोभाको ये नहीं पा सकते, अथवा-देव नलकी श्रीको अच्छी तरह प्राप्त कर लें, किन्तु वैसी नलकी-सी परछाई तो इन देवोंकी नहीं है ] // 21 // चिह्न रमीभिर्नलसंविदस्याः संवादमाप प्रथमोपजाता। सा लक्षणव्यक्तिभिरेव देवप्रसादमासादितमप्यबोधि // 22 // चिह्नरिति / अस्याः दमयन्त्याः, प्रथमोपजाता 'इतरनलनुलाभागेषु शेषः' इत्यादिपूर्वसर्गोक्तविकल्पोत्पन्ना, नलसंवित् अयं शेष एव नल इति बुद्धिः, अमीभिः एभिः, चिह्नः पूर्वोक्तैः भूस्पर्शादिभिः, संवादम् ऐकमत्यम् , आप दाढ्यं प्रापेत्यर्थः; सा दम. यन्ती, लक्षणानां पूर्वोक्तचिह्नानां, व्यक्तिभिः, प्रकाशैरेव, अभिव्यक्तिलक्षणकायेरेवेत्यर्थः, देवप्रसाद देवतानुग्रहरूपकारणमपि, आसादितं प्राप्तम् : अबोधि, मत्सेवया देवताः, प्रसन्नाः, कथमन्यथा भूस्पर्शादिमानुषसुलभचिह्वानि एतावन्तं कालं न दृष्टानि अधुना वा दृश्यन्ते, कारणं विना कार्यानुत्पत्तेरिति ज्ञातवतीति भावः। बुध्यतेः कर्तरि लुङ 'दीपजन-' इत्यादिना विकल्पात चिण // 22 // इन ( पूर्वोक्त 14.16-21 ) चिह्नोंसे इस (दमयन्ती) का पूर्व में ( 'इतरनल-' 13.53, इससे या नलके दूत बनकर आने पर या-सरस्वती देवीके श्लिष्ट वचनोंसे ) उत्पन्न 'यह पञ्चम आसन पर स्थित ही नल है' ऐसा ज्ञान संवादको पा लिया अर्थात् अबिरुद्धभासित हो गया ( 'यही नल हैं। ऐसा मैंने पहले जो समझा था, वह ठीक ही था ऐसा उसने निश्चय कर लिया ) / इसके बाद उस ( दमयन्ती ) ने लक्षणों ( देवों तथा मनुष्यों के पूर्वोक्त (14-16-21) विभिन्न चिह्नों) से देवों को प्रसन्नताको भी जाना [ अर्थात् पहले इन हन्द्रादि देवोंमें देवगत 'भूस्पर्श, निमेष, रजःस्पर्श, स्वेद, मालामालिन्य तथा छाया' का अभाव नहीं दीखता था; किन्तु अब इनमें इन भूस्पर्शादि चिह्नोंका अभाव स्पष्ट दीखता है, अत एव ये देव अब मेरे ऊपर प्रसन्न हो गये हैं, ऐसा समझा] // 22 // नले विधातुं वरणस्रजं तां स्मरः स्म रामा त्वरयत्यथैनाम् / अपनपा तां निषिषेध तेन द्वयानुरोधं तुलितं दधौ सा / / 23 / / नले इति / अथ शेषोऽयं नल इति निश्चयानन्तरं, स्मरः तां करस्थां, वरण नले विधातुम् एनां रामां दमयन्ती, त्वरयति स्म त्वरयामास, अपनपा सर्वसमक्ष कथमेनं माल्यदानेन वृणे इति लज्जातु, तां कामेन स्वर्यमाणां भैमी, निषिषेध निवा. रयामास, 'स्थादिष्वम्यासेन चाभ्यासस्य' इति धास्वभ्याससकारयोः षत्वम् / तेन कारणद्वयेन, सा भमी, द्वयानुरोधं स्मरलज्जोभयानुरोधं, तुलितं समीभूतं यथा तथा,
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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