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________________ प्रथमः सर्गः। वाडवाग्निः 'वहश्चेति ण्विप्रत्ययः / तस्यच्छन्दोमात्रविषयस्वाद अनादरेण भाषायां प्रयोगः / वाडवहम्यवाहो वाहवाग्नेरेव स्थिरयाऽन्तरवस्थानेन प्ररोहत्तमो बहिः प्रादु. भंवत्तमो भूमा येषान्ते च धूमाश्च तेषां भावस्तता तां दधुः। पहिलस्थितधूमपटल. बदभुरित्यर्थः / ध्रुवमित्युस्प्रेक्षायाम् // 114 // जिस ( तडाग ) में तरङ्गोके चलनेसे बड़े-बड़े शेवाक लताके समूहने भीतरमें रानेवाले वाडवाग्निसे ऊपर उठे हुए धूम-बाहुल्यको धारण कर किया है, ऐसा प्रतीत होता था। [तरङ्ग-समूहसे चञ्चल बड़े-बड़े शेवाल-समूह अन्तःस्थित वसवाग्निके ऊपर उठती हुई धूमज्वालाके समान प्रतीत होते थे ] // 114 // प्रकाममादित्यमवाप्य कण्टकैः करविताऽऽमोदभरं विवृण्वती। धृतस्फुटश्रीगृहविग्रहा दिवा सरोजिनी यत्प्रभवाऽप्सरायिता // 15 / / प्रकाममिति। आदित्यं सूर्यमवाप्य प्रकामं कण्टकैः नालगतैः तीधणाौरवयवैः करम्बिता वन्तुरिता, अन्यत्रादिस्यमदितिपुत्रमिन्द्रमवाप्य कण्टकैः पुलकः करविता अतएवामोदभरं परिमलसम्पदमानन्दसम्पदं च विवृण्वती प्रकटयन्ती दिवा दिवसे घृतानि स्फुटश्रीगृहाणि पनानि यस्य स विग्रहः स्वरूपं यस्याः सा, अन्यत्र दिवा स्वर्गेण स्फुटश्रीगृहमुज्ज्वलशोभास्पदं विग्रहो देहो यस्याः सा स्वर्गलोकवासिनी. त्यर्थः। यस्तडागः प्रभवः कारणं यस्याः सा तजन्या सरोजिनी पद्मिनी अप्सरा. यिता अप्सर इवाचरिता। 'उपमानाद् कतः क्या सलोपश्चेति कर्तरि का, 'भोज जिस ( तडाग ) में उत्पन्न, दिनमें सूर्यको प्राप्तकर सम्यक प्रकारसे कण्टकों के द्वारा च्याप्त, सौरम-समूहको फैलाती हुई, विकसित शोमास्थान ( कमळ ) रूप शरीरवाली कमलिनी विशिष्ट कामयुक्त इन्द्रदेवको प्राप्तकर रोमाञ्चों व्याप्त इर्षातिशयको प्रकट करती हुई तथा स्वर्गसे धारण किये गये प्रकाशमान शोमा-स्थानरूप शरीरवाली अप्सराके समान माचरण करती है / / 115 // यदम्बुपूरप्रतिबिम्वितायतिमरुत्तरङ्गैस्तरलस्तटद्रुमः / निमज्ज्य मैनाकमहीभृतः सतस्ततान पक्षान् धुवतः सपक्षताम् / / 116 // ___ यदिति / यस्य तडागस्याम्बुपूरे प्रतिबिम्बितायतिः प्रतिफलितायामः मरुत्तरङ्गैः वातवीजनस्तरलश्वश्चलः तटदुमः निमज्ज्य सतो वर्तमानस्य पचान् धुवतः कम्पयतो मैनाकमहीभृतस्तदास्यस्य पर्वतस्य सपक्षतां साम्यं ततानेत्युपमा // 116 // जिस (तडाग ) के जल-प्रवाहमें प्रतिविम्बित विस्तारवाला तथा वायु चलित तरकों से चचक तीरस्थ वृक्ष जलके भीतर ) डूबकर स्थित तथा पलोंको कपाते हुए मैनाक पर्वतकी समानताको विस्तृत कर रहा है। [जिस तडागके जल में प्रतिबिम्बित वायु प्रेरित तरकोसे चचक तटस्थ द्रुम समुद्र-जल में डूबकर पङ्ख हिलाते हुए मैनाक पर्वतके समान प्रतीत होते थे ] // 116 // 5 नै०
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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