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________________ नैषधमहाकाव्यम् / के साथ रहनेवाले, भ्रमरसमूहके समान ( श्याम कान्तिवाले ) तथा मृणाल तुल्य (शुभ्र वर्ण ) शेषनागकी शग्यावाले विष्णुसे अनुगत (युक्त ) होता था। [क्षीर समुद्र में उक्तरूप विष्णु भगवान् रहते हैं, अतएव यह तडाग भी उक्तरूप कमलिनी-स्तम्ब-समूहयुक्त होनेसे वैसा ही प्रतीत होता था] // 111 // तरङ्गिणीरङ्कजुषः स्ववल्लभास्तरङ्गलेखा बिभराम्बभूव यः / दरोद्गतः कोकनदौघकोरकैधृतप्रवालाङ्करसञ्चयश्च यः॥ 112 // तरङ्गिणीरिति / यस्तडागोऽङ्कजुषोऽन्तिकभाजः उत्सङ्गसङ्गिन्यश्च वा तरतरेखा. स्तरङ्गराजिरेव स्ववल्लभास्तरक्षिणीरिति व्यस्तरूपकम्बिभराम्बभूव बभार, 'भीही. भृहुवा श्लुवच्चे ति भृजो विकरुपादाम्प्रत्ययः। किश्च यस्तटागो दरोद्गतेरीषदुबुद्धेः कोकनदौधकोरकैः रक्तोत्पलखण्डकलिकाभिः धृतप्रवालाङ्कुरसञ्चय पतविद्रुमाकुर. निकरश्चेति / अत्रापि कोकनदकोरकाणां विदुमत्वे रूपणाद्रुपकालङ्कारः // 112 // जो ( तडाग) क्रोड ( मध्य ) में स्थित अपनी प्रिया तरङ्ग लेखारूपिणी नदियों को धारण करता था तथा कुछ बाहर निकले हुए रक्तकमल-समूहके अहरोंसे विद्दुमके अङ्करसमूह वाला था- [ समुद्र में जैसे उसकी प्यारी बहुत सी नदियाँ भाकर मिलती है तथा विद्रुमके अङ्कर-समूह रहते हैं, उसी प्रकार इस तदागके मध्यमें भी अपने में ही उत्पन्न होनेसे प्रिय तरङ्ग रेखारूपी नदियाँ थीं तथा बाहरको ओर थोड़ा दीखते हुए रककमकके अडर समूह प्रवालाङ्कर समूहरूप थे / अतएव यह तडाग समुद्रतुल्य था ] // 212 / / महीयसः पङ्कजमण्डलस्य यशवलेन गौरस्य च मेचकस्य च | नलेन मेने सलिले निलीनयोस्त्विषं विमुश्चन विधुकालकूटयोः / / 113 // महीयस इति / यस्तडागः महीयसो महत्तरस्य गौरस्य च मेचकस्य च पङ्कजा मण्डलस्य सितासितसरोजयोश्छलेन सलिले निलीनयोः विधुकालकूटयोः सितासि. तयोरिति भावः। विर्ष विमुझन् विराजसिव नलेन मेने / अनच्छलेन विमुशलि. वेति सापहवोस्प्रेणा // 113 // गौर ( श्वेत ) तथा मेचक ( चमकदार नीलवर्ण ) कमल समूहके कपटसे जिसको नबने पानीमें डूबे हुए चन्द्रमा तया कालकूट ( हलाहल विष ) को कान्तिको छोड़ता हुआ-सा माना। [ समुद्र जिस प्रकार श्वेत चन्द्रमा तथा इलाहलसे युक्त है, उसी प्रकार इस तडाग में भी श्वेत तथा नील कमल समूह होनेसे यह तडाग मी उन ( चन्द्रमा तथा हलाहरू) से युक्त था ] // 113 // चलीकृता यत्र तरङ्गरिङ्गणैरवालशैवाललतापरम्पराः / ध्रुवन्दधुर्वाडवहव्यवाडवस्थितिप्ररोहत्तमभमधूमताम् // 114 // चलीकृता इति / यत्र यस्मिन् तडागे तरकरिगणैस्तरङ्गकम्पनाश्चलीकृताः चाली. कृताः अबालानां कठोराणां शैवाललतानां परम्पराः पंक्तयः हव्यं वहतीति हग्य.
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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