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________________ नैषधमहाकाव्यम्। इस (न) ने पक्षीयुक्त, दोहदप्राप्तिसे कण्टकित तथा मध्यमें विदीर्ण होनेसे लाल फहमें दामोंको खानेके लिए सुग्गों के प्रविष्ट होते हुए चोंचोंसे युक्त दारिमी (अनार ) को देखा, वो प्रियका स्मरण होनेसे रोमात्रयुक्त तथा स्तनमध्यमें विदीर्ण होनेसे रक्तवर्ण हृदय में कामदेवके पलाश-पुष्पमय बाण जिसमें प्रविष्ट हो रहे हैं ऐसी विरहिणी नायिकाके समान प्रतीत होती थी। [नलने दाडिमीको देखा, जो पक्षियोंसे तथा दोहद (धूपादि) प्राप्त होनेसे कण्टोसे युक्त थी, एवं जिसके विदीर्ण हुए फलके मध्यमें दानों को खाने के लिए प्रविष्ट होते हुए मुग्गोंके चोच ऐसे मालूम पड़ते थे मानों प्रिय-स्मरण से रोमानियुक्त विर. हिणीके स्तनमध्यमें विदीर्ण होनेसे लालिमा युक्त हृदयमें कामदेवके पलाशपुष्परूप बाण घुस रहे हो। अथवा-परमात्माके साक्षात्काररूप फलका बोधक (तुरीयावस्थारूप) स्थान. से व्युत पूर्वकाको विषयों में अनुरागी हृदयमें प्रवेश करते (स्थिर होते ) हुए उपदेशसे हटाये जाते हैं। कामदेवके पलाशपुष्पमय बाण जिससे ऐसी, तथा परमप्रिय सच्चिदानन्दके स्मरणसे (शीघ्र प्राप्तिको माशासे हातिशय होने के कारण ) रोमाञ्चयुक्त विशिष्ट योगिनीको (या-उक्तरूपा योगिनीके समान दारिमीको ) नलने देखा ] // 83 // स्मरा चन्द्रेषुनिभेकशीयसां स्फुटे पलाशेऽध्वजुषाम्पलाशनात् / स वृन्तमालोकत खण्डमन्वितं वियोगिहरखण्डिनि कालखण्डजम् / / 4 / / स्मराति / नलः स्मरस्य योऽ चन्द्रः मर्दचन्द्राकार इषुस्तभिभे तस्साशे नित्यसमासवादस्वपदविग्रहः, अत पाहामरः-'स्युत्तरपदे स्वमी। निमसाशनीकाशप्रतीकाशोपमादयः' इति / वियोगिनां हृरखण्डिनिहायवेधिनि कशीयसांकृश. तराणामध्वजुषामध्वगामिनाम् पलाशनात् मांसभक्षणात् पलाशे पलमश्नातीति शुष्परथा पलाशसंज्ञामाजिकिंशुककलिकायामित्यर्थः / अन्वितं सम्वद्धं वृन्तं प्रसवबन्धनं तदेव कालखण्ड खण्डं यकरखण्डमिति व्यस्त रूपकम् ।आलोकत आलोकि. तवान् / 'कालखण्डं यकृरसमे' इत्यमरः। तच दक्षिणपार्श्वस्थः कृष्णवर्णो मांस. पिण्डविशेषः / / 84 // उस ( नक) ने कामदेवको अर्द्धचन्द्राकार पाणके समान, वियोगियोंके हृदयको विदीर्ण करनेवाले ( मतएव ) अतिशय दुर्बल (घर भाते हुए विरही) पथिकों के मांसका मक्षण करनेसे वस्तुतः पलाश अर्थात अन्वर्थ 'पलाश' नामवाले वृक्षपर कालखण्ड (वियोगियों के दक्षिण हृदय के कृष्णवणं मांस) से उत्पन्न वियोगि-हृदयके अंशके समान वृन्त (फूलकी भेटी - ऊपरी इण्ठल-जहाँसे फूल टूटकर अलग होता है) को देखा। (पाशवृक्षपर अहं नन्दाकार फूल लग रहे थे, वे कामदेवके वियोगि-घातक भद्धचन्द्राकार बाणके तुल्य मालूम पड़ते थे, उन फूलों के ऊपर कृष्णवर्ण वृन्त ऐसे मालूम पड़ते थे कि कामदेवने बो विरहियोंके दाहिने पाश्वमें भद्धचन्द्राकार किंशुक-पुष्पमय वाणसे प्रहार किया है, उस बाणमें उन विरहियोंके दक्षिण पाश्वका कृष्णवर्ण मांसका कुछ माग सम्बर हो गया ( सट गया) है। तथा उन पलाशपुष्पोंको देखनेसे वसन्तका मागमन मालूम कर विरही
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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