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________________ प्रथमः सर्गः। विदर्भसुभ्रस्तनतुङ्गताप्तये घटानिवापश्यदलं तपस्यतः / फलानि धूमस्य धयानधोमुखान स दाडिमे दोहदधूपिनि द्रुमे // 2 // विदर्भेति / 'तरुगुल्मळतादीनामकाले कुशलैः कृतम् / पुष्पादुरपादितं द्रव्यं दोहदं स्यात्तु तरिक्रया // ' इति शब्दार्णवे। दोहदश्वासौ धूपच तदुक्तं 'मेषामिषाम्बुसंसे. कस्तरके शामिषधूपनम् / श्रेयानयं प्रयोगः स्याद् दारिमीफलवृद्धये // मरस्याज्यनिफळालेपैर्मा सैराजाविकोद्भवैः / लेपिता धूपिता सूते फलन्तालीव दाडिमी // अविष्काथेन संसिका धूपिता तप्तरोमभिः। फलानि दाडिमी सूते सुबहूनि पृथूनि च // ' इति / तति दारिमीद्रुमे फलानि विदर्भसुभ्रुवो दमयन्त्याः स्तनयोर्या तुगता तदाप्तये तारगौनस्यलाभायेत्यर्थः / अलमस्यर्थन्तपस्यतस्तपश्चरतः, 'कर्मणो रोमन्थ. तपोभ्यां वर्तिचरोरिति पहप्रत्यये तपसः परस्मैपदश्च वक्तव्यं, धूमस्य दोहद. धूमस्य धयन्तीति धयान् पातन , धेट-पाने अत्र 'आतश्योपसर्ग' इति उपसर्गग्रहणान्नानुवर्ति-पक्षस्वात् 'पाने त्यादिनाऽनुपसृष्टादपि धेटः शप्रत्यय इति गतिः। भत एव काशिकायां केचिदुपसर्ग इति नानुवर्तयन्तीति / अधोमुखान् घटानिव अपश्य दिस्युरप्रेक्षा / महाफलार्थिन इस्थमुग्रं तपस्यन्तीति भावः // 82 / / उस नलने दोहद धूपयुक्त अनारके पेड़पर दमयन्तीके स्तनद्वयकी विशालताको पाने के लिए अधोमुख हो धूमका पान करनेवाले, तप करते हुए घड़ों के समान फलोंको मच्छी तरह देखा। [दमयन्तीके स्तन बहुत बड़ेबड़े थे, पटाकार अनारके फल मी चाहते थे कि हम भी दमयन्ती स्तनों के समान ही बड़े हों, अतएव वे दोहद धूपयुक्त अनारके पेड़पर अधोमुख हो लटकते हुए ऐसे ज्ञात होते थे मानो वे दमयन्तीके स्तनों के समान बड़े होने के लिए अधोमुख हो अत्यन्त कठिन तपस्या कर रहे हों, ऐसे उन फलों को नलने देखा / लोकमें भी कोई व्यक्ति किसी बड़े अमीष्टकी सिद्धि के लिए अधोमुख हो धृम का पान करता हुआ घोर तपस्या करता है। पेड़में अच्छे फल लगने के लिए विविध द्रव्यों द्वारा वृक्षके नीचे दिये गये धूमको 'दोहद' कहते हैं ] / / 82 // वियोगिनीमैक्षत दाडिमीमसौ प्रियस्मृतेः स्पष्टमुदीतकण्टकाम् | फलस्तनस्थानविदीर्णरागिहद्विशच्छकास्यस्मरकिंशकाशगाम // 3 // वियोगिनीमिति / असौ नलः प्रियास्मृतेदमयन्तीस्मरणादिव स्पष्ठं व्यक्तमुदीतेति ई गताविति धातोः कर्तरि क्तः। उदीता उद्गताः कण्टकाः स्वावयवसूचय एव कण्टका रोमाञ्चा यस्यास्तामिति श्लिष्टरूपकम् / 'वेणी द्रुमाङ्गे रोमाञ्चे क्षुद्रशत्रौ च कण्टके' इति वैजयन्ती। फलान्येव स्तनौ तावेव स्थानं तत्र विदीर्णो रागो यस्यास्तीति रागि रक्तवर्णमनुरक्तञ्च यत्तस्मिन् हृदि विशत् बीजभक्षणान्तःप्रविशच्छुकास्यरूपं शुकतुण्डमेव स्मरस्य किंशुक पलाशकुडमलमेवाशुगो बाणो यस्यास्तां दादिमीमेव वियोगिनी विरहिणीमैक्षत अपश्यत् / रूपकालङ्कारः। विपक्षी तयोगिनीमिति च गम्यते // 83 // 40
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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