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________________ 652 नैषधमहाकाव्यम् / माविक ) गैरिक भावको धारण करे [ उदयाचलके चट्टान प्रातःकालीन सूर्यकिरणों से पहले ही गेरूसे लाल हो रहे थे, किन्तु जब तुमने वहां विलास से भ्रमण किया तो श्रमजन्या पसीना आनेसे पैर की अंगुलियां भीग जावेंगी और उनके नाखूनों में लगाये गये लाल वर्णके महावर उन चट्टानों पर लग जायेंगे, इस कार्यसे वे चट्टान फिर गेरू-से मालूम पड़ने लगेंगे। तुम इस राजाको वरणकर उदयाचलपर विलासपूर्वक भ्रमण करो ] 43 // नृणां करम्बितमुदामुदयन्मृगाङ्कशङ्कां सृजत्वनघजवि ! परिभ्रमन्त्याः / तंत्रोदयाद्रिशिस्त्ररे तब दृश्यमास्य काश्मीरसम्भवसमारचनाभिरामम् / / - नृणामिति / हे अनघजति ! सुन्दरजवाशालिनि ! वामोरु ! इति यावत् 'नासि. कोदर-' इत्यादिना विकल्पेन, ङीष्-प्रत्ययः, तत्र द्वीपे, उदयादिशिखरे परिभ्र. मन्स्याः विहरन्त्याः , तव काश्मीरसम्भवसमारचनेन कुङ्कुमानुलेपनेन, अभिरामम अत एव दृश्यं दर्शनीयम्, 'दुपधाच्चाक्लपिचतेः' इति क्यप, तवास्यं कर्त, कर• म्बितमुदां सम्मिलितानन्दानां, नणां पुंसां, 'न च' इति विकल्पात् दीर्घः, उदयन्मृ: गाङ्कशङ्काम उदीयमानचन्द्रसन्देह, भ्रान्ति वा, सृजतु करोतु / अलङ्कारोऽपि सन्देहभ्रान्तिमतोरन्यतरोऽस्तु // 44 // __ हे अनिन्दित जघनोंवाली ( दमयन्ति ) ! उस उदयाचलकी चोटीपर भ्रमण करती हुई तुम्हारा कुङ्कुमलेपसे मनोहर ( अत एव ) देखने योग्य मुख आनन्दित मनुष्यों को उदित होते हुए चन्द्रमाकी शङ्काको पैदा करे / [ उदयाचलकी चोटीपर घूमती हुई तुम्हारे कुङ्कुमलेपयुक्त रमणीय मुखको देखकर 'यह चन्द्रमा उदय हो रहा है' ऐसे भ्रमसे मनुष्य हर्षित होवें ] // 44 // एतेन ते विरहपावकमेत्य तावत् कामं स्वनाम कलितान्वयमन्वभावि / अङ्गीकरोषि यदि तत्तव नन्दनायैलब्धान्वयं स्वमपि नन्वयमातनोतु॥४५॥ एतेनेति / ननु भैमि ! एतेन हव्याख्येन राज्ञा, ते तव, विरहपावकम् एत्य वियोगाग्नि प्राप्य, स्वं स्वकीयं, नाम हव्यसंज्ञा, कामं प्रकामं,कलितान्वयंप्राप्तान्वर्थ, सार्थकमिति यावत् , अन्वभावि तावत् अनुभूतमेव, अग्नी हुतत्वाद्धव्यसंज्ञा सार्थाऽ. जनीत्यर्थः; अङ्गीकरोषि यदि इस्थम् अनुरक्तं तं नृपं वरत्वेन स्वीकरोषि चेत् , तत् तदा, अयं नृपः, स्वम् आस्मानमपि, तव नन्दनायैः त्वय्युत्पादितपुत्रपौत्रादिभिः, लब्धान्वयं लब्धवंशप्रतिष्ठम्, आतनोतु धर्मप्रजासम्पत्यर्थत्वादारपरिग्रहस्येति भावः।। इस ('हव्य' नामक राना ) ने तुम्हारी विरहाग्निको पाकर अपने नाम ( 'हव्य' अर्थात् हवन करने योग्य द्रव्य-विशेष ) को अच्छी तरह सार्थक कर लिया है, यदि तुम इसे स्वीकार करती हो तो यह तुम्हारे पुत्र आदि (पौत्र,") से अपनेको सन्तानयुक्त करेगा। [ 'यदि' पदके द्वारा सरस्वती देवीने पाक्षिक स्वीकार करना कहकर स्वीकार करनेमें अरुचिका संकेत किया है ] | // 45 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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