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________________ 564 नैषधमहाकाव्यम् / रिणामः, सा प्रसिद्धा, यदीया काञ्ची व्याकरणेन अरचि रचिता, असंशयं संशयाभाव इत्यर्थः, 'अव्ययं विभक्ति-' इत्यादिना अर्थाभावेऽव्ययीभावः // 78 // पट्टसूत्रकी लम्बाईसे किये ( पक्षा०-गुण, दीप, भावप्रत्यय और कृत्प्रत्ययोंके ) विस्तारको धारण करती हुई और शब्दपरम्पराको करनेवाली अर्थात् बजनेवाली (पक्षा'राम, पाक' आदि शब्द-समूहको सिद्ध करनेवाली) जिस ( सरस्वती) की करधनी ( कटिभूषण काञ्ची) व्याकरण ( वेदाङ्गभूत मुख-स्थानीय ग्रन्थ-विशेष ) से बनायी गयी थी। [ 'देवेन्द्र, देवोद्यान' आदि पदोंमें 'आद्गुणः' (पा० सु. 6-1.87 ) से 'गुण', 'दैत्यादि, श्रीश' इत्यादि पदोंमें 'अकः सवर्णे दीर्घः' (पा० सू० 6-1-102 ) आदि सूत्रोंसे 'दोघ', 'भूयते' इत्यादि पदों में लाकर्मणि च भावे चाकर्म केभ्यः' (पा० सू० 3-469 ) आदि सूत्रोंसे भावमें प्रत्यय, और 'कर्तव्य, करणीय' आदि पदोंमें 'तव्यत्तव्यानीयर:' (पा० सू० 3.1.96 ) आदि सूत्रोंसे 'तव्य एवं तव्यत्' आदि 'कृत्' संज्ञक प्रत्यय व्याकरणानुसार होते हूँ तथा वह व्याकरण शास्त्र 'राम' कृष्ण, नन्दन, गमन' आदि शब्दोंकी रचना ( सिद्धि) करता है / व्याकरण वेदोंका मुख माना गया है, अत एव उसका शब्द करना अर्थात् बोलना उचित ही है ] // 78 // स्थितैव कण्ठे परिणम्य हार-लता बभूवोदिततारवृत्ता। ज्योतिर्मयी यद्भजनाय विद्या मध्येऽजमङ्कन भृता विशङ्के // 79 // स्थितेति / कण्ठे वाचि, अन्यत्र-ग्रीवायां, परिणम्य रूपान्तरं प्राप्य, स्थिता, उदिता उक्ताः, तारा अश्विन्यादयो येषु तानि, वृत्तानि पद्यानि यस्यां सा, अन्यत्रउदिततारा प्रकाशितशुद्धमौक्तिका, सा च सा वृत्ता च वर्तला च तथोक्ता, 'तारो मुक्तादिसंशुद्धौ तरणे शुद्धमौक्तिके'-'वृत्तं पद्ये चरित्रे त्रिष्वतीते दृढनिस्तले' इति च विश्वामरी, अङ्गानां शिक्षाकल्पादीनाम, अन्यत्र-करादीनां मध्ये मध्येऽङ्गं, 'परि मध्ये' इत्यादिनाऽव्ययीभावः, अङ्केन एकद्वयादिसंख्यया चिह्नन, भृता पूर्णा, अन्यत्र-अङ्कन क्रोडेन, वक्षसा इत्यर्थः, भृता धृता, भरतेबिभत्तश्च कर्मणि क्तः 'अङ्क कोडेऽन्तिके चिह्ने' इति वैजयन्ती। ज्योतिर्मयी नक्षत्रप्रधाना, अन्यत्रभास्वती, 'ज्योतिरग्नौ दिवाकरे। पुमान् नपुंसकं दृष्टौ स्यानक्षत्रप्रकाशयोः' इति मेदिनी, विद्या ज्योतिर्विद्यैव, यद्भजनाय यस्याःसरस्वत्याः सेवनाय, हारलता बभूव इति विशङ्के इत्युत्प्रेक्षा // 79 // . कण्ठ ( वचन, पक्षा०-गर्दन ) में स्थित, उदयप्राप्त तारा-( अश्विन्यादि नक्षत्र) सम्बन्धि वृत्त ( श्लोक या शुभाशुभ फलका कथन ) वाला ( पक्षा०-चमकती हुई मध्य मणिवाली तथा गोल ), अङ्ग ( वेदोंके शिक्षा आदि 6 अङ्ग, पक्षा०-शरीर ) में अङ्क ( सङ्ख्या या गणना अर्थात् गिनती, पक्षा०-क्रोड अर्थात् गोद) से पूर्ण ज्योतिर्मयो ( नक्षत्र-प्रधान अर्थात ग्रहों तथा नक्षत्रोंके विचार करनेवाला, पक्षा०-धमकती हुई ) विद्या अर्थात ज्योतिःशास्त्र ही जिस ( सरस्वती) की सेवाके लिये हारलता ( हारकी लड़ी)
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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