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________________ दशमः सर्गः। 565 बनी है, ऐसा मैं समझता हूँ। [ सरस्वती देवीके वचनमें स्थित अश्विन्यादि तारा-सम्बन्धी शुभाशुभ फलका निर्देशक शिक्षादि वेदाङ्गोंमें गणना या अङ्करूपसे पूर्ण ज्योतिशास्त्र ही सरस्वती देवीकी सेवाके लिए उसके कण्ठमें मध्यमणियोंवाली तथा गोल, शरीरके मध्य में अङ्क (क्रोड ) में पड़ी हुई हार लता बनी-सी मालूम पड़ती है ] / / 79 / / अवैमि वादिप्रतिवादिगाढ-स्वपक्षरागेण विराजमाने / तौ पूर्वपक्षोत्तरपक्षशास्त्रे रदच्छदौ भूतवती यदीयौ // 80 / / अवैमीति / वादिप्रतिवादिनोः गाढेन निविडेन, स्वपक्षे रागेण अभिनिवेशेन, अन्यत्र-अन्तःपावरक्तत्वेन, विराजमाने पूर्वपक्षोत्तरपक्षशास्त्रे यदीयौ तौ प्रसिद्धौ, रदच्छदौ ओष्ठौ, भूतवती बभूवतुः, भवतेः क्तवतुप्रत्ययः, अवैमि उत्प्रेक्षे। भत्र ओष्ठावपि वादिनावभिवदनव्यापारवन्ती पूर्वोत्तरीभूतो चेति द्रष्टव्यम् // 8 // वादी तथा प्रतिवादीके दृढ अपने पक्षके आग्रह (पक्षा०-गाढ पक्षद्वय अर्थात् प्रान्तद्वयकी लालिमा ) से शोभमान पूर्वपक्ष तथा उत्तर पक्षके शास्त्रद्वय जिस ( सरस्वती) के दोनों ओठ बन गये हैं, ऐसा मैं जानता हूँ। [ जिस प्रकार वादी तथा प्रतिवादी अपने-अपने दृढ पूर्वापर पक्ष (मत ) का आग्रहपूर्वक स्थापन करते हुए बोलते हैं, उसी प्रकार सरस्वतीके पूर्वापर ( ऊपर-नीचे ) स्थित पक्षद्वय ( दोनों प्रान्तों ) में राग अर्थात लालिमायुक्त दोनों ओठ भी बोलते हैं, ऐसी उत्प्रेक्षा करता हूँ ] // 80 / / / ब्रह्मार्थकर्मार्थकवेभेदात् द्विधा विधाय स्थितयाऽऽत्मदेहम्।। चक्रे पराच्छादनचारु यस्या मीमांसया मांसलमूरुयुग्मम् / / 81 // ब्रह्मेति / पराच्छादनचारु उत्कृष्टवसनाभिरामं, मांसमस्यास्तीति मांसलं पीवरं, सिध्मादित्वात् लच, यस्याः सरस्वत्याः, ऊरुयुग्मं परेषां प्रतिवादिनाम्,आच्छादनेन तिरस्करणेन, चारु शोभनम् आत्मदेहं स्वस्वरूपं, चार्विति विशेषणानपुंसकं ग्राम, 'कायो देहः क्लीबपुंसोः' इत्यमरः ब्रह्मैवार्थः प्रतिपाद्यार्थो यस्य सः, कर्मैवार्थः प्रतिपाद्यार्थो यस्य सः 'शेषाद्विभाषा' इति कपि भावप्रधानो निर्देशः' ताभ्यां ब्रह्मकाण्ड. कर्मकाण्डाभ्यां, यो वेदस्य भेदः द्वैविध्यं तस्माद्धेतोः द्विधा विधाय पूर्वोत्तरमीमांसा. रूपेण द्विविधं कृत्वा, स्थितया प्रतिष्ठितया मीमांसया द्वैविध्यया चक्रे कृतमिति गम्योत्प्रेक्षा // 8 // __ अन्य (वैशेषिक-बौद्धादि ) के मतके खण्डन करने से ( पक्षा०-श्रेष्ठ वस्त्र से ढकनेसे चतुर (या सुन्दर ), परिपुष्ट ( पक्षा०-मांसल = मांसपूर्ण ) जिस ( सरस्वती देवी ) के ऊरुद्वयको, ब्रह्मप्रयोजनक तथा कर्मप्रयोजनक अर्थ ब्रह्म तथा कर्मका प्रतिपादक वेदभेदसे अर्थात् ब्रह्मकाण्ड तथा कर्मकाण्ड नामक वेद-विभागसे अपने देहको दो विभागकर (पूर्व मीमांसा तथा उत्तर मीमांसा नामसे प्रसिद्धकर ) स्थित मीमांसाने बनाया है। [वेदार्थ-प्रतिपादन मीमांसा करती है, वह ईश्वरको नहीं मानती; उसके 'पूर्वमीमांसा
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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