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________________ षष्ठः सर्गः। भगवान ) के देवर होने में ( पाठा०-देव इन्द्र के पति होने में और लक्ष्मी-पतिके देवर होने में), तथा लक्ष्मीकी पति-भ्रातृ-पत्नी रूपमें सखी होनेमें जो कल्याण होगा, उसे हृदयसे विचारो। [इन्द्रको वरण करने में तुम्हें मन्दाकिनीमें जलक्रीडा तथा नन्दनवनमें विहार करनेको मिलेगा, अग्नि आदि देवोंको वरण करोगी तो केवल मन्दाकिनीमें जलक्रीम करनेका आनन्द मिलेगा, परन्तु नन्दनवनमें विहार करनेका आनन्द नहीं मिलेगा। इन्द्रके वरण करनेपर लक्ष्मीपति विष्णु तुम्हारे देवर हो जायेंगे, किन्तु भग्नि आदिके वरण करने. पर विष्णुको देवररूपमें नहीं प्राप्त कर सकोगी तथा इन्द्र के वरण करनेपर लक्ष्मी तुम्हारी सखी होगी, अग्नि आदि किसीके वरण करनेपर सम्पत्तिरूप लक्ष्मीकी तो प्राप्ति होगी किन्तु साक्षात् लक्ष्मी सखी नहीं होगी। इसके अतिरिक्त यदि इन्द्रादि देवोंको छोड़कर भूमिष्ठ किसी राजकुमारका वरण करोगी तो उक्त सब सुखोंसे सर्वथा वञ्चित रह जाओगी, अतः किसी राजकुमारको तथा अग्नि आदि देवोंको छोड़कर इन्द्र को ही वरण करना ] // 83 // रज्यस्व राज्ये जगतामितीन्द्रायाच्याप्रतिष्ठां लभसे त्वमेव / लघूकृतस्वं बलियाचनेन तत्प्राप्तये वामनमामनन्ति // 4 // रज्यस्वेति / हे भैमि, जगतां राज्ये, त्रैलोक्याधिपत्ये, रज्यस्व अनुरक्ता भव / प्रार्थनायां लोट / रजेः स्वरितेवादात्मनेपदम् / इत्येवंरूपां यानां प्रार्थनामेव प्रतिष्ठा गौरवमिन्द्रात्वमेव लभसे / तथाहि तस्य त्रैलोक्यराज्यस्य प्राप्तये लाभाय बलेवैरोचनस्य याचनेन लघुकृतमल्पीकृतं, स्वामात्मा येन तं विष्णुमपीति शेषः / तं वामनं हस्वं लघु चामनन्ति / यदर्थ विष्णोरपि यात्रालाघवं प्राप्तम् / प्रार्थनां विना तदेव तुभ्यं दीयते देवेन्द्रेणेत्यहो ते भागधेयमित्यर्थः / व्यतिरेकेण दृष्टान्तालङ्कारः // 84 // 'तीनी लोकों के राज्यमें तुम अनुरक्त होवो अर्थात् तीनों लोकोंका राज्य करो' इस प्रकार इन्द्रसे याचना-गौरवको तुम्हीं पा रही हो, ( अन्य कोई स्त्री नहीं ) / जिस ( तीनों लोकों के राज्य ) को पाने के लिये बलि ( दैत्योंका राजा) के यहाँ याचना करनेसे अपनेको छोटा करनेवाले (विष्णुको विद्वान् लोग ) वामन कहते हैं / [ शत्रुभूत निकृष्ट दैत्योंके राजा बलिसे देवश्रेष्ठ साक्षात् विष्णुने जिस त्रैलोक्यके राजाकी याचनाकर अपनी आत्माको याचना करनेके कारणसे ही छोटा ( गौरव-हीन ) किया तथा उस त्रैलोक्यराज्यको इन्द्रके लिये दे दिया, उसी त्रैलोक्यराज्यको तुम्हें देनेके लिये इन्द तुमसे याचना कर रहे है, यह गौरव केवल तुम्हें ही प्राप्त हुआ है दूसरे किसी व्यक्तिको नहीं जिस त्रैलोक्यराज्यको सर्वश्रेष्ठ विष्णु अपनेसे निकृष्ट बलिसे माँगकर अपना गौरव नष्ट कर संसारमें वामन (छोटा ) कहलाये, उसी त्रैलोक्यराज्यको सर्वश्रेष्ठ देवराज इन्द्र अपनेसे निकृष्ट मानुषी तुमको प्रार्थना करते हुए देना चाहते हैं; अतः विष्णु तथा इन्द्रसे भी तुम्हारा गौरव अधिक हो रहा है। इस कारण तुम इन्द्रको ही वरण करना] // 84 /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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