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________________ नैषधमहाकाम्यम् / किवर, विद्याधर तथा रणमें मरकर देवस्वप्राप्त वीररूप देवयोनियों में भी मेह अदिति-पुत्ररूप देवयोनिको प्राप्त करोगी और उन अदिति--पुत्ररूप देवोंसे भी श्रेष्ठ महेन्द्र-पत्नी बनोगी तथा सर्वश्रेष्ठ वे महेन्द्र तुम्हारा दास होकर रहेंगे; अतः अग्नि, वरण तथा यमको भी छोड़. कर सर्वश्रेष्ठ इन्द्रको ही तुम वरण करना ] // 81 / / पदं शतेनाप मलेदिन्द्रस्तस्मै स ते याचनचाटुकारः / कुरु प्रसादं तदलं कुरुष्व स्वीकारद्धृनटनक्रमेण || 82 // पदमिति // इन्द्रः शतेन मखैः मखशतेन यत्पदमिन्द्रवलक्षणं स्थानमाप प्राप स इन्द्रस्तस्मै पदाय तरपदस्वीकारायेत्यर्थः / ते तव याचनेन प्रार्थनया चाटुकार: प्रियंवदः / जात इति शेषः / “न शब्दश्लोके"त्यादिना टप्रत्ययनिषेधात् कर्मण्यण। प्रसादमनुग्रहं कुरु / तदन्द्रं पदं स्वीकारकृता अंगीकारण्याकेन भ्रूनटनक्रमेण भूवि. क्षेपव्यापारेण, अलं कुरुष्व // 82 // इन्द्रने सौ ( अश्वमेध ) यज्ञों से जिस पदको पाया है, उस ( को देने ) के लिये तुमसे वह इन्द्र याचनारूप प्रिय वचन कह रहा है, तुम कृपा करो तथा उस इन्द्रपदको स्वीकारसूचक भ्रूचालन-श्रमसे सुशोभित करी / [ सौ अश्वमेध यज्ञोंसे प्राप्त पदको देने के लिये इन्द्र तुमसे याचना तथा खुशामद चाटुकारी कर रहे हैं, उसे तुम केवल भ्रूके सच्चालनरूप श्रमसे स्वीकार करो। तुम इन्द्रकी भी स्वामिनी हो, अतः स्वामिनीको किसी प्रार्थना की स्वीकृति देनेके लिये मुखसे बोलनेकी आवश्यकता नहीं होती, किन्तु स्वामी केवल भू-सञ्चालनसे ही स्वीकृति दे देता है / तुम इन्द्रको वरणकर महापुण्य-लभ्य इन्द्राणीपद प्राप्त करो और इसके लिये अपनी भ्रूको हिलाकर अपनी स्वीकृति दे दी ] // 82 // मन्दाकिनीनन्दनयोविहारे देवे भवेदेवरि माधवे च / प्रेयश्श्रियां यातरि यच्च सख्यां तच्चेतसा भाविनी भावय त्वम / 8 // मन्दाकिनीति // भावयतीति भाविनि विचारचतुरे भैमि ? मन्दाकिनीनन्दनयोविहारे क्रीडायां माधवे देवे उपेन्द्रे देवरि देवरे भर्तृभ्रातरि सति / स्यालाः स्युतिरः पत्न्याः, स्वामिनो देवृदेवरी' इत्यमरः / “दिवेः" इति ऋ प्रत्ययः / श्रियां श्रीदेभ्याम् / यतत इति यातरि / देवृभायाम् / 'भार्यास्तु भ्रातृवर्गस्य यातरः स्युः परस्परम्' इत्यमरः / 'यतेवृद्धिश्च' इति तृन्प्रत्ययः / सख्यां सत्याश्च यच्छ्रे यो महो. स्कर्षः भवेत् / तत्त्वं चेतसा विभावय विचारय / अयाचितोपनतं महच्छ्यो न परिहर्तव्यमित्यर्थः / अत्र नन्दनविहारक्रियायाः माधवदेवृकत्वश्रीयातृकत्वगुणयोश्च सामस्त्येन योगपद्यात् समुच्चयालङ्कारभेदः / 'गुणक्रियायोगपये समुच्चय उदाहृतः इति लक्षणात् // 83 // हे विचारशील दमयन्ती ! स्वर्गङ्गा तथा नन्दनवनके विहारमें, लक्ष्मीपति देव (विष्णु
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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