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________________ 210 नैषधमहाकाव्यम् / प्रिवस्य स्वमर्तुः, धनुःपौष्पमित्यर्थः परिरभ्य, अनुमर्तुम् अनुगमनं कतु, चितार्चिपि, अशेत शयिता किम् / प्रियमनुमतु चितार्जिषि शयाना साक्षादतिरेवेयमित्युस्प्रेक्षा। तज्ज्वराग्निस्तथा प्रज्वलतीति भावः // 21 // विरहमें निमग्न (अत एव तज्जन्य सन्तापको शान्ति के लिये ) हृदयपर कमलको रखी हुई उस दमयन्तीके समान कहांपर (किस संसार में ) कोई स्त्री है ? / प्रिय (काम-) धनुषको हृदयसे मालिङ्गन ( हृदयपर रख) कर रति प्रियतम ( कामदेव ) के पीछे मरने के लिये चिताग्निपर सोई थी क्या ? अथवा-..."सोई है क्या ? [ दमयन्ती की स्वस्थावस्थामें कहींपर कोई भी स्त्री उसके समान सुन्दरी नहीं ही थी, किन्तु नल विरहसे क्षीणकान्ति होकर शय्यापर पड़े रहनेको अवस्थामैं भी उसके समान कोई स्त्री नहीं थी, इतना ही नहीं, अपि तु सर्वसुन्दरी रति भी उस दमयन्तीकी समता उस क्षीणावस्थामें भी नहीं कर सकी; क्योंकि दमयन्ती तो जीवित मी प्रिय (नल ) के विरह होनेसे विरहरूप चिताग्निपर सोकर मरने के लिये तैयार हो गई थी, किन्तु प्रिय कामदेवके भस्मावशेष हो जानेपर भी रति उसके कमल = पुष्परूप धनुषको हृदयसे आलिङ्गनकर उस प्रियके पीछे मरने ( सती होने ) के लिये चिताग्निपर नहीं सोई थी भतएव रति मी दमयन्तीकी समानता नहीं कर सकी / अथवा-विरह-सन्तापकी शान्ति के लिये हृदयपर कमलपुष्प रखकर सोई हुई दमयन्तीको देखकर सखोजन आदिको शला हो जाती थी कि-'प्रिय कामके विरह से उसका कमल-पुष्परूप धनुष हृदयपर रखकर सती होने के लिये रति ही चिताग्निपर सोई है क्या ? // दमपन्ती विरहजन्य तापकी शान्तिके लिये शीतल कमलपुष्पको हृदयपर रखकर लेटी हुई थी ] // 21 // अनलभावमियं स्वनिवासिनो न विरहस्य रहस्यमबुद्धयत | प्रशमनाय विधाय तृणान्यसून ज्वलति तत्र यदुज्झितुमैहत // 22 // अनलभावमिति / इयं दमयन्ती, स्वनिवासिनः स्वनिष्ठस्य, विरहस्य नलवियो. गस्य, रहस्यं शमीवहिवनिगूढम्, अनलभावमग्निवं, नलरहितवश गम्यते / नाचु. यत नाजानादिस्यर्थः / कुतः, ययस्मात् , तत्र तस्मिन्विरहे, ज्वलति सति, प्रशम. नाय प्रज्वलनप्रतीकारार्थम् , असन् , तृणानि विधाय तृणप्रायान् कृत्वा तणा. स्मकानिति गम्यते / उज्झितुं त्यक्तुं प्रक्षेप्तुश। ऐहत ऐच्छत् / अग्नित्वज्ञाने कथं सच्छान्तये तत्र तृणप्रक्षेप इत्यर्थः। विरहदुःखान्मर्तुमैग्छदिति तात्पर्यार्थः // 22 // उस दमयन्तीने अपने में स्थित विरहको अनलभाव (अग्नित्वरूप, पक्षान्तरमें-नके अप्राप्तिरूप ) रहस्यको नहीं समझा, क्योंकि उस अग्निके जलते रहनेपर ( पक्षान्तरमेंविरहके बढ़ते रहनेपर ) उसकी शान्ति के लिये उप्तमें प्राणों को तृण बनाकर छोड़ना चाहा / अथवा-उस दमयन्तीने अपने में स्थित विरह-नलका दुलं मत्वरूप रहस्यको नहीं समझा ? अर्थात् अवश्य समझा क्योंकि (उस नलको दुर्लभताको समझ कर ही अन्य उपाय न होनेसे)
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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