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________________ चतुर्थः सर्गः 206 आश्यदाता भी शत्रु हो जाता है, अतः नलको हृदय में आश्रय देनेवाली दमयन्ती भी कामदेवका शत्रु बन गयी। इस कारण दमयन्तीके हृदयमें प्रहार करने से उस कामदेवकी नीति सफल हो गयी। और वह वहां स्वयं वृषिको (विजय) को प्राप्त किया। यह वास्तविक फलितार्थ ध तु के दूसरे अर्थ में होता है ] // 19 // / विधुरमानि तथा यदि भानुमान् कथमहो स तु तद्धृदयं तथा / अपि वियोगभरास्फुटनस्फुटीकृत दृषत्त्वमजिज्वलदंशुभिः // 20 // विधुरिति / तया दमयन्त्या, विधुश्चन्द्रः, भानुमान् सूर्यः, अमानि मेने यदि, विरहिणस्ता चित्रम् / किन्तु, सः सूर्यस्वामिमतो विधुः, बियोग एव भरो भारस्ते. नापि यदस्फुटनमविशरणं, तेन स्फुटीकृतं दृषत्वं सूर्योपलवं यस्य तत् / अन्यथा तिभाराखोष्टादिबद्विशीर्यतेति भावः / तदयमपि भैमीहृदयरूपं सूर्यकान्तम पीत्यर्थः / कथं तथा सूर्यवत् अंशुभिः स्वतेजोमिः, अजिज्वलत् ज्वलयति स्म / ज्यलतेो चङ / अहो विधुविरहिणामुद्दोपकस्वात सूर्यवत्तपतु नाम / तदकोंपलज्वल. यितृत्वं तु चित्रमित्यर्थः // 20 // ____ यदि (विरहावस्थामें चन्द्रमाको देखकर सन्ताप बढ़ने के कारण ) दमयन्तीने चन्द्रमाको सूर्य मान लिया है, किन्तु वह ( सूर्य माना गया वास्तविक चन्द्रमा) वियोगकी अधिकता (पक्षान्तर में-अधिक बोझ ) से नहीं विदीर्ण होने (पक्षान्तरमें-फूटने) के कारण अपनेको पत्थर अर्थात् सूर्यकान्त मणि स्फुट ( प्रमाणित ) करनेवाले दमयन्ती हृदयको उस प्रकार ( अत्यधिक प्रमाणमें ) क्यों सन्तप्त कर रहा था ? [ चन्द्रमा विरहि विरहिणियोंका सन्तापकारक होनेसे विरहिणी दमयन्तीके लिये भो सन्ताप-कारक हो रहा था, इसी कारण वह चन्द्रमाको सूर्य मानती थी; किन्तु बह अवास्तविक सूर्य ( वास्तविक रूपमें चन्द्रमा) विरहभारसे मी अविदीर्ण ( अन्यथा यदि पत्थर नहीं होता तो दवावसे फूटकर चूर्ण हो जाता और सामान्य जातीय पत्थर होने पर भी अधिक सन्तप्त नहीं होता फिर ) दमयन्ती-हृदयरूप सूर्यकान्त मणिको क्यों सन्तप्त कर रहा था ? यह आश्चर्य है / जो सूर्य नहीं, अपितु चन्द्रमा है, वह सर्य माननेमात्रसे सूर्यकान्त मणिको कदापि सन्तप्त नहीं कर सकता, अतः वह वस्तुतः चन्द्रमा नहीं, किन्तु सूर्य ही है // विरहिणी दमयन्तीके हृदयको चन्द्रमा अत्यधिक सन्ताप दे रहा था ] // 20 // हृदयदत्तसरोरुह्या तया क सहगस्तु वियोगनिमग्नया / प्रियधनुः परिरभ्य हृदा रतिः किमनुमतुमशेत चितार्चिषि / / 21 / / हृदयेति / वियोगनिमग्नया विरहाग्निमग्न या, अत एव हृदयदत्तसरोरुहया स. तापशान्तये वक्षोनिक्षिप्तपद्मया, तया समाना हश्यत इति सहक सहशी स्त्री 'समाना. न्ययोश्च' इत्युपसण्यानारसमानोपपदादृशेः किन्प्रत्ययः / 'म्हशवतुषु' इति समानशब्दस्य सभावः / वास्तु न कापीत्यर्थः / यद्वा रतिः कामपरनी, हृदा वक्षसा
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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