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________________ चतुर्थः सर्गः 211 उस विरहकी शान्ति के लिये अपने प्राणों को तृणों के समान मानकर छोड़ना चाहा ( जीनेकी अपेक्षा मरना ही अच्छा समझा / अथवा-अपने पासमें रहनेवाले के रहस्यको मनुष्य अवश्य समझता है, अतएव दमयन्तीने मी नलाभावरूपी विरह-रहस्य को समझकर अपने प्राणों को तृण (तुच्छतम ) मानकर प्रशमन (प्र+शमन-उद्दण्ड + यमराज अर्थात् क्रूर यमराज ) के लिए देना चाहा / [प्रथम पक्षमें-यदि दमयन्ती अपने में निवास करनेवाले विरहके अग्नित्वरूप रहस्यको समझती तो उसकी शान्तिके लिए प्राणोंको तृण बनाकर नहीं छोड़ती, क्योंकि कोई भी समझदार व्यक्ति अग्निकी शांति के लिये उसके जलते रहने पर उसमें तृण नहीं छोड़ता / दमयन्ती नलको दुर्लभ समझकर मृतप्राय हो गयी ] // 22 // प्रकृतिरेतु गुणस्स न योषितां कथमिमां हृदयं मृदु नाम यत् / तदिषुभिः कुसुमैरपि धुन्वता सुविवृतं विबुधेन मनोभुवा / / 23 / / प्रकृतिरिति / योषितां हृदयं मृदु नामेति यत् / नामेति प्रसिद्धौ। स इति विधेयप्राधान्यात् पुंल्लिङ्गता / प्रकृतिः प्रकृतिसिद्धः,गुणो मार्दवगुणः, इमां दमयन्ती कथं नैतु प्राप्नोत्ववेत्यर्थः / कुतः ? तन्मृदुवं कुसुमैरपि इषुभिः, धुम्वता विबुधेन देवेन विदुषा च मनोभुवा, सुविवृतं सम्यग्ज्याण्यातम्, विदधिकारवारसन्दिग्धा. थनिणंयस्येत्यर्थः / कुसुमादपि सुकुमारमस्या हृदयमित्यर्थः // 23 // 'क्यों स्त्रियोंका हृदय कोमल होता है। यह प्रसिद्ध है / यह (स्त्रियोंका) स्वामाबिक गुण दमयन्तीरूप स्त्रीको भी क्यों न प्राप्त हो अर्थात् प्राप्त ही हैं। इस वातको पुष्पबाणों से भी कम्पायमान ( 'दुन्वता' पाठभेदमें-पीडित ) करते हुए देवता ( पक्षास्तरमें-विशिष्ट विद्वान्) कामदेवने अच्छी तरह स्पष्ट कर दिया [सर्व देवता या विशिष्ट विद्वान् ही किसी बातको मुस्पष्ट कर सकता है, वैसे कामदेवने मी अतिसुकुमार पुष्प-बाणोंसे दमयन्ती हृदयको कम्पित या पीडितकर उक्त बातको सुस्पष्ट कर दिया, अन्यथा यदि दमयन्तीका हृदय फूलोंसे भी अधिक कोमल नहीं होता तो वह फूलों के बाणोंसे कम्पित या पीड़ित कदापि नहीं होता] / रिपुतरा भवनादविनिर्यतीं विधुरुचि हजालबिलैर्नु ताम् / इतरथात्मनिवारणशङ्कया ज्वलयितुं बिसवेषधराविशत् // 24 // रिपुतरेति / रिपुतरालिद्वेषिणी, विधुरुचिश्चन्द्रप्रभा, भवनादविनियंतीमनिर्ग: छन्ती, इश्शतरि ङोप / तां भैमी ज्वलयितुं सन्तापयितुं, इतरथा निजरूपेण प्रवेशे आत्मनिवारणशक्या / स्वप्रवेशप्रतिषेषभिया, बिसवेषस्य धरा सती, गृहस्य जालबिलैर्गवाचरन्धेः, अविशन्नु प्रविष्टा किम् / शिशिरोपचारबिसाकुरा निरन्त. रान्तःस्थितभैमीबाधनाय प्रच्छन्न प्रविष्टेन्दुकरा इव प्रविमान्ति स्मेस्युस्पा // 24 // (विरहके कारण दमयन्तीको भतिशय पीडित करनेसे ) प्रबल शत्रुभूत चाँदनी, घरसे (बाहर ) नहीं निकलती हुई दमयन्तीको सन्ताप देने के लिये अन्यथा ( अपने वास्तविक रूपमें घरके मुख्य द्वारसे प्रवेश करनेपर ) अपने निवारण ( रुकने ) की शंकासे (दमयन्तो
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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