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________________ 208 नैषधमहाकाव्यम् / नादनलज्ञानम् / तवान्यभिचारीति स्फरतो विरोधस्या लिङ्गारसन्तापकरो नलो निश्चित इत्यभासीकरणाविरोधाभासः / स च श्लेषानुप्राणितः। सन्तापकरो नल इति शब्दश्लेषः / अन्यत्रार्थश्लेषः / अपिर्विरोधे // 18 // सखियों के द्वारा उस राजकुमारी ( पक्षान्तरमें-पर्वतभूमि ) में बाष्प (आंसू , पक्षा. न्तरमें--भाप ) को देखनेसे विचार किया गया सन्तापकारक नल ( पक्षान्तरमें-अनल= अग्नि ) का अनुमान जो व्यभिचरित नहीं हुआ (ठीक निकला ) यह आश्चर्य है / [ जैसे पर्वतकी भूमिमें भाप देखकर किया गया अग्नि-विधयक अनुमान आश्चर्यजनक होता है, वैसे ही बाष्प देखनेसे अनुमित सन्तापकारकत्व भाश्चर्यजनक है। दमयन्ती का रोना देखकर उसकी सखियोंने जो 'नल-विरहके कारण यह रो रही है' अनुमान किया, यह आश्चर्य है / पहले पाण्डुता आदिसे और बाद में रोनेसे बिना बतलाये ही सखियों द्वारा नलविरह जन्य सन्तापका अनुमान करना आश्चर्यजनक है ] // 18 // हृदि विदर्भभुवं प्रहरन् शरै रतिपतिनिषधाधिपतेः कृते | कृततदन्तरगस्वदृढव्यथः फलदनीतिरमूर्च्छदलं खलु // 16 // हृदीति / निषधाधिपतेः कृते नलस्यार्थ, तत्प्रहारार्थमित्यर्थः। 'अर्थे कृते चशब्दो द्वौ तादध्येऽव्ययसंज्ञितौ' इति वचनात् / विदर्भभुवं दमयन्ती, शरहदि प्रहरन् , नलस्य सदा तद्गतरवादिति भावः / रतिपतिः कामः, कृता तदन्तरगस्य भैमीहृदतस्य स्वस्य दृढव्यथा येन सः, स्वयमपि तद्गतत्वात् प्रहृतः समित्यर्थः। फलन्ती अनीतिदुनौतिर्यस्य सोऽलमत्यन्तममूर्च्छदवर्धत खलु / अमुह्यदिति 1 गम्यते / 'म मोहसमुच्छ्राययोः' इत्यनुशासनात , तदभेदेन मूछोलक्षणकार्यदर्शनादतिपतेः स्मरस्थापि प्रहार उत्प्रेक्ष्यते व्यक्षकाप्रयोगादग्या / सा च श्लेषमलातिशयो. क्युस्थापितेति सङ्करः। परप्रहारोद्यतस्य स्वप्रहाररूपानर्थोत्पत्तेविषमभेदश्च व्यज्यते // ___ निषधराज नलको लक्ष्यकर दमयन्तीके हृदय में बाणों से प्रहारकर दमयन्ती हृदय-स्थित अपनेको ही अधिक व्ययित करनेसे दुनीतिका फल पानेवाला कामदेव अत्यन्त मूच्छित हो गया ( पक्षा० में बढ़ गया)। [ कामदेवको नलने अपनी शरीरशोमासे जीत लिया था, अतः वह कामदेवका शत्रु बन गया। दमयन्तीके हृदयमें स्थित नलको लक्ष्यकर दमयन्तीके हृदय में बाणोंसे प्रहार करनेवाला कामदेव वहां स्वयं भी स्थित होने के कारण स्वयं ही बहुत घायल होकर मूञ्छित हो गया, यह उसने अपनी दुनौतिका फल पाया। नलको मारनेके लिये दमयन्तीके हृदय में प्रहार करना भारी दुनीति है, क्योंकि शत्रुको छोड़कर दूसरेपर प्रहार करना अनुचित है, अतएव इस दुनीतिका फल कामदेवको स्वयं भोगना पड़ा। अन्य कोई योद्धा किसी दुर्ग भादि गुप्त स्थानमें छिपे हुए शत्रुपर वहां जाकर आत्मरक्षाके बाद ही प्रहार करता है, किन्तु कामदेव वैसा न कर सकने के कारण (आत्मरक्षाऽमावरूपी) दुर्नीति का स्वयं शिकार बन गया। दमयन्तीकी कामजन्य पीडा बढ़ गई। अथवा-शत्रुका
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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