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________________ भूमिका भुमानजनसाकूतपश्या यस्यानुजीविनः // ' ( 16 / 25) आगे चलकर महाकदिने कलि के मुखसे तात्कालिक धर्माचरणका वर्णन कराकर जो नमस्वरूप उपस्थित किया है, वह भी कम महत्त्वास्पद नहीं है। उसका इन्द्रादिदेवोंने युक्तिपूर्वक बहुत ही उत्तम ढंगसे खण्डन करते हुए धर्मका मण्डन किया है। किन्तु इतना तो कहना ही पड़ेगा कि जितने सबल शन्दों में धर्मका खण्डन किया गया है, उतने सबल शब्दोंमें मण्डन नहीं है। अष्टादश सर्गमें नवदम्पतिकी रतिका वर्णन श्रीहर्षकी कामशाखकी पारदर्शिता प्रकट करता है। उन्नीसवें सर्ग में प्राबोधिक वैतालिकमुखसे किया गया प्रमात वर्णन बहुत ही हृदयहारी है / महाकविने नारीहृदयकी मृदुता तथा पुरुषहृदयकी कठोरताका कितनो सुन्दर करपना द्वारा चित्रण किया है। वह कहते हैं कि पतिरूप चन्द्र के सर्वथा अस्त होनेके पहले नहीं, किन्तु उसके क्षीणकाय ( निष्प्रभ ) होनेके पहले ही चन्द्रप्रिया ताराएं तथा रात्रि नष्ट हो गयीं, यह उन परमसती लोगों के लिये सर्वथा उचित हो है; किन्तु अपनी ऐसी प्रियाओं के नष्ट हो जानेपर भी चन्द्रमा जो मलिनकान्ति होकर स्थित है, शीघ्र मरा नहीं; अतएव हात होता है कि इसका हृदय पत्थर का है 'उडुपरिषदः किं नावं ? निशः किमु नौचिती? पतिरिह न यत्ताभ्यां दृष्टो गणेयरुची गणः / स्फुटमुडपतेराश्मं वक्षः स्फुरन्मलिनाश्मनपछवि यदनयोविच्छेदेऽपि मृतं बत न द्रुतम् // ' (19 / 19 ) श्रीहर्षका महावैयाकरणत्व· श्रीहष महावैयाकरण थे यह उनके तत्तस्थलों में दिये गये पर्यो एवं पदों के द्वारा स्पष्ट हो जाता है। एतदर्थ यद्यपि बहुतसे उदाहरण इस ग्रन्थ से उपस्थित किये जा सकते है तथापि दिग्दर्शनार्थ निम्नलिखित केवल दो पद्य हो उद्धृत किये जाते हैं 'क्रियेन चेत्साधुविभक्तिचिन्ता व्यक्तिस्तदा सा प्रथमाभिधेया। या स्वौजसा साधयितुं विलासैस्तावक्षमा नामपदं बहु स्यात् / / ( 3223) उक्त पय हंसमुखसे नलका वर्णन कराते हुए कविने 'पदं न प्रयुञ्जीत' 'एकवचन. मुत्सर्गतः करिष्यते' इन वैयाकरणसम्मत सिद्धान्तोंकी ओर सङ्केत किया है 'स्वं नैषधादेशमहो विधाय कार्यस्य हेतोरिति नानलः सन् / कि स्थानिवदावमधत्त दुष्टं ताहक्कृतम्याकरणः पुनः सः॥' ( 10 / 136 ) यहाँपर महावैयाकरण श्रीहर्षने इन्द्रादिके नलका रूप धारणकर स्वयंवरमें आने के प्रसङ्गका वर्णन करते हुए 'स्थानिवदादेशोऽनल्विधौ' (पा० स० 111156 ) का सरत किया है। बीसवें सर्गके वणनसे श्रीहर्षका परमवैष्णव होना भी सिद्ध होता है। उन्होंने नलकृत
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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