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________________ भूमिका पूजाप्रकरणको लेकर जो वर्णन किया है, उसमें विष्णुके वर्णनको ही प्रधानता दी है / उसी प्रसङ्गमें नामकीर्तनका माहात्म्य कहते हुए वर्णन करते हैं कि-हे विष्णो ! नरकनाशक मापके नामका जो लोग लोलापूर्वक भी उच्चारण करते हैं, उन्हींसे नरकको डरना उचित है, वे लोग मला नरकसे क्यों डरें 'लीलयाऽपि तव नाम जना ये गृडते नरकनाशकरस्य / - तेभ्य एव नरकैरुचिता भीस्ते तु विभ्यतु कथं नरकेभ्यः // ' ( 21 / 17 ) आगे चलकर स्मरणमाहात्म्यका वर्णन कर ( 2199) पुनः रामनाम कीर्तन के महत्त्व का विशेषरूपसे वर्णन करते हैं। वे कहते हैं-'हम जैसे साधारण शानी कोगों के लिये सब नामों में विशेषभाव ( समानता) रहनेपर भी हमें आपका 'राम'नाम ही गुणोंका स्थान प्रतीत होता है, यदि ऐसा नहीं था तो तीन जन्मों (बलराम, परशुराम तथा दशरथतनय राम) में अपने 'राम'नामको क्यों स्वीकार किया ?'___ प्रस्मदायविषयेऽपि विशेषे रामनाम तव धाम गुणानाम् / अन्वबन्धि भवतैव तु कस्मादन्यथा ननु जनुत्रितयेऽपि // ' (2190) अन्तमें भक्तिमरित हृश्य नल कहते हैं कि-हे भगवान् ! संसार ही आपका स्वरूप है और आपने ही संसारको रचा है, अत एव आपके आश्चर्यजनक ऐश्वर्यको छोटे-से हृदयमें कितना ग्रहण करूँ; क्योंकि दरिद्र व्यक्ति सुमेरु पर्वतको पाकर भी फटे चिथड़ेमें कितना सोना बाँधता है 'विश्वरूप ! कृतविश्व ! कियत्ते वैभवादभुतमणी हृदि कुर्वे। हेम नाति कियनिजचीरे काशनाद्रिमधिगत्य दरिद्रः // ' (21 // 10 // 3) श्रीहर्ष जिसका वर्णन करने लगते हैं, उसके वर्णनसे मानो थकते ही नहीं। इस इक्कीसवें सर्गमें दमयन्तोके पाससे नलके उठनेसे लेकर द्वारपर चिरकालसे प्रतीक्षा करते हुए राजाओंको दर्शन देते, उनसे उपहार ग्रहण करते हुए स्नानगृहमें जाकर सविवि स्नान करने के पश्चात् देव-पूजागृह में उपस्थित होने, वहाँपर स्थापित देवपूजा सामग्रियोंका तथा विधिपूर्वक पञ्चदेव पूजनोपरान्त पुरुषसूक्त पाठ, मन्त्र जप, विष्णुस्तुति आदिका सवि. स्तर वर्णन किया है। आगे चलकर सन्ध्याकालके भाप्तन्न होनेपर चक्रवाकवधूके आसन्न भावी विरहसे दयार्द्र प्रियतमा दमयन्तीके कहनेपर सायं सन्ध्योपासनसे निवृत्त हो क्रमशः सायङ्काल, अन्धकार एवं चन्द्रमाका वर्णन स्वयं करते हैं तथा दमयन्तीसे भी चन्द्र वर्णन करानेके अनन्तर पुनः स्वयं चन्द्रवर्णन करने लगते हैं। इससे स्पष्ट विदित होता है कि महाकवि श्रीहर्षका कल्पनाकोष बहुत विशाल एवं क्षयरहित है। जैसा मैंने ऊपर कहा है कि ये एक ही पदार्थका वर्णन बार-बार करके भी थकने नहीं, किन्तु कहीं भी ऐसे वारवार वर्णनों के प्रसङ्गमें किसी भी कल्पनाको ये दुहराते नहीं, प्रत्युत उत्तरोतर अभिनव कल्पना मात्राभोंसे उसे अधिकाधिक सजाते ही जाते हैं। उदाहरणार्थ भनेक स्थलों में दमयन्तीके
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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