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________________ भूमिका 'अर्थिने न तृणवद्धनमानं किन्तु जीवनमपि प्रतिपाद्यम् / एवमाह कुशवजलदायी ब्रम्पदानविधिरुकिविरग्य' (5 / 86) नलने अपने दूतकर्मको भाषन्त साङ्गोपाङ्ग निभाया है। अपने कार्य में कुछ विलम्ब होता हुआ देखकर वे बहुत ही खिन्न होते हुए सोचते है कि मेरे मार्गको देखनेवाले इन्द्र के नेत्रोंको बज्रने बनाया है। शोध करने योग्य कार्य में भी विलम्ब करनेवाले मुझको धिक्कार है, जिसमें दूसरे के दूतकार्य करनेका साधारण गुण मी नहीं है 'इयचिरस्यावदधन्ति मरपथे किमिन्द्रनेत्राण्यशनिन निममौ / धिगस्तु मां सत्वरकार्यमन्थरं स्थितः परप्रेन्यगुणोऽपि यत्र न // ' (9 / 21) यहाँ पर नलने निष्कपट मानसे अपने दूतबमकी सिपिके लिए यथाशक्ति प्रयत्न करने में लेशमात्र भी कमी नहीं की है और अन्ततक उसकी सफलताके लिए प्रयत्नशील रहे हैं और इनके इसी निष्कपटमावने इन्हें पुण्यश्लोक बनाया है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। स्वयंवर में जिस क्रमसे सब दीप तथा राजाभोंका वर्णन महाबवि श्रीहर्षने किया है, वह समस्त समुद्र, वृक्ष, देव आदिका विष्णुपुराणके द्वितीय अंशके तृतीय अध्यापमें स्पष्ट वर्णित है। वहाँ पर शाकदोपके वर्णन प्रसङ्गमें वहाँके अधिपतिका नाम 'मन्य' कहा गया है और अपनी कृति नैषषचरितमें श्रीहने 'हन्य' को शाकदोपका भविपति कहा है ( 11 // 37) सम्भव है यह नामभेद पाठान्तर आदि किसी कारणसे हो। इस द्वीपवर्णनसे महाकविके पौराणिक शानकी पुनः परिपुष्टि होती है / राजाओंके वर्णन प्रसङ्गमें सरस्वती मुबसे काशीनरेशका वर्णन कराते हुए महाकविने 'कश्यां मरणान्मुक्ति' वचनका अत्यन्त उत्तम युक्तिसे समर्थन किया है। आपके मतमें भूभागके किसी तीर्थविशेषमें तपस्या करनेवालों को स्वर्गप्राप्ति होती है, और यह काशीपुरी पृवीपर नहीं है (किन्तु पौरागिक वचनोंके अनुसार शङ्कर भगवान् के त्रिशूल के ऊपर बसी है ) और वहाँपर निवास करना स्वर्ग में निवास करना है, अत एव उस पवित्र तीर्थमें शरीर त्याग करनेवाले प्राणियों को स्वर्गसे भी श्रेष्ठ मुक्ति होती है। अन्यथा यदि उन्हें स्वर्ग ही प्राप्त हो तो उनके संका कोई कारण ही नहीं होता, क्योंकि वे तो स्वर्गरूप काशीमें पहलेसे निवास करते ही थे / कविके शब्दोंमें इस प्रसङ्गको देखिये'वाराणसी निवसते न वसुन्धरायां तत्र स्थितिमखभुजां भुवने निवासः। तत्तीथमुक्तषपुषामत एव मुक्तिः स्वर्गास्परं पदमुदतु मुदे तु कोरक ! // ' (11 / 116) नलके पाण्डित्व-प्रदर्शन-प्रसङ्ग में स्थान-स्थान पर इलेषका वर्णन मा चुका है, किन्तु इन्द्रादि चारो देवों के साथ नलका तथा नळके साथ इन्द्रादि चारो देवोंका एक साथ वर्णन करके महाकविने नो श्लेपोतिचातुर्य का प्रदर्शन किया है, वही उनके पाण्डित्यका निष्कर्ष है। आगे चलकर अन्तमें'देवः पतिर्षिदुषि नैपपराजगत्या निर्णीयते न किमु न प्रियते भवत्या। 2 नै० भ०
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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