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________________ भूमिका भाकृष्ट करनेके उद्देश्यसे बार-बार उनका प्रसा लाकर उनको अत्यन्त स्तुति इस प्रकार करता है कि दमयन्तीको यह लेशमात्र भी आमास न होने पावे कि इसे नलने भेजा है तथा इस चातुर्यपूर्ण रहस्यको वह तब तक छिपा रखता है, जब तक दमयन्तीके हृदयको अच्छी तरह ठोंक-ठोंककर नलके प्रति आकृष्ट होनेका दृढ़ निश्चय नहीं कर लेता है। यहाँपर हंसके चातुर्यका दिग्दशनमात्र करना अप्रासङ्गिक नहीं होगा। देखिये-हंस किस चातुर्यसे श्लेष द्वारा नल के प्रति दमयन्तीको आकृष्ट करता है। वह कहता है कि-'मुझ स्वर्गीय हंसको पकड़ने के लिए 'विरलोदय नर'के एकमात्र स्वर्गोग्यभाग्यके अतिरिक्त कोई जाल आदि समर्थ नहीं हो सकता। 'धन्धाय दिव्ये न तिरश्चि कश्चित्पाशादिरासादितपौरुषः स्यात् / एकं विना मादृशि तन्नरस्य स्वर्भोगभाग्यं विरलोदयस्य // ' (3 / 20) यहाँपर उसने 'विरलोदय, नर' इन दो शब्दोंसे नलका स्पष्ट सङ्केत किया है। आगे वह दमयन्तीके का नाम बाला द्विजराजपाणिग्रहाभिलाषं कथयेदभिज्ञा / ' (3159) अपने मनोरथगत नलकी ओर श्लेषद्वारा सङ्केत करने पर उसके नलविषयक अर्थको समझ कर भी स्पष्ट करने के लिए कहता है-चन्द्रमाको हाथसे पकड़ने के समान आप जिसे प्राप्त करने के लिए अधिक आदरिणी हों, उसे क्या मैं उस प्रकार सुननेका अधिकारी नहीं हूँ, जिस प्रकार वेदवचनको सुननेका अधिकारी शूद्र नहीं होता ( 362) / आगे उसके मनोरथको पूरा करनेमें अपनेको सर्वथा समर्थ बतलाता हुआ वही हंस विश्वकी किसी भी वस्तुको यहाँ तक कि लङ्काको भी देने में अपनेको समर्थ कहता है, जिसका उत्तर कुलीना दमयन्ती स्पष्टरूपसे न देकर श्लेषद्वारा ही नलको पानेकी इच्छा पुनः प्रकट करती है 'इतीरिता पत्ररथेन तेन हीणा च हृष्टा च बभाण भैमी। चेतो नलं कामयते मदीयं नान्यत्र कुत्रापि च साभिलाषम् // ' ( 367) यहाँपर कुलाङ्गनोचित शोलका पूर्णरूपेण पालन करते हुए श्रीहर्षने भारतीय संस्कृति के परमोच्चादर्शको स्थापित किया है। इसी कारण अन्तमें विवश होकर हंसको ही 'नल के साथ तुम विवाह करना चाहती हो' कहना पड़ा है (379) / और आगे चलकर वह पुनः पुनः नलके लिये दमयन्तीसे दृढ़ निश्चय कराकर ही 'वे भी तुम्हें चाहते हैं और उन्होंने ही तुम्हारे पास मुझे भेजा है' इत्यादि कहते हुए अपना वास्तविक रूप दमयन्तीके समक्ष व्यक्त करता है। ___सभी लोग कुश तथा जल लेकर सङ्कल्पपूर्वक दान देते तथा लेते देखे जाते हैं। देखिये महाकवि श्रीहर्षने दानवीर नलके मुखसे उक्त प्रकरणको लेकर कितनी सुक्ष्मदशिताके साथ दानका महत्त्व कहलवाया है / दानके स्वरूप विविध प्रकारसे कहते हुए नल कहते हैं किकुश-जलयुक्त दान करने का विधान यह सूचित करता है कि याचकके लिए केवल धनमात्र ही नहीं, अपि तु प्राणोंको भी तृणके समान दान कर देना चाहिये।'
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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