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________________ द्वितीयः सर्गः। 105 हे पक्षी ( हंस ) ! लोगोंसे श्रवणातिथि की ( सुनी ) गयी अनुपम (या-अपरिमित मधुरूप ( या-मधुतुल्य ) उसकी कथा मेरी कामाग्निको बढ़ानेमें 'धाय्या' ऋक् ( अग्निहोत्रके अग्निको प्रज्वलित करनेवाला ऋग्वेदका मन्त्र-विशेष ) होती है, इस कारण धैर्यहीन ( या-धैर्ययुक्त ) मुझको धिक्कार है // 56 // विषमो मलयाहिमण्डलीविषफत्कारमयो मयोहितः। बत कालकलत्रदिग्भवः पवनस्तद्विरहानलघसा / / 57 / / विषम इति / विषमः प्रतिकूलः कालकलत्रदिग्भवः यमदिग्भवः प्राणहर इति भावः, पवनो दक्षिणमारुतः तद्विरहानलैधसा दमयन्तीविरहाग्निसमिधा तदाह्येनेत्यर्थः / मया मलये मलयाचले या अहिमण्डली सर्पसङ्घः तस्याः विषफूत्कारमयऊहितस्तद्रुप इति तर्कित इत्यर्थः / लोके च 'अग्निरेधांसि फूस्कारवातैर्मायत' इति भावः / बतेति खेदे। विरहानलेधसेतिरूपकोत्थापितेयं दक्षिणपवनस्य मलयाहिमण्डलीफूत्कारत्वोत्प्रेक्षेति सङ्करः // 57 // हे हंस ! उस ( दमयन्ती ) की विरहाग्निका इन्धनरूप मैं यमराजकी स्त्रीभूता दिशा अर्थात् दक्षिण दिशाकी वायुको मलयपर्वतके सर्प-समूहके विषमिश्रित फुफकारसे पूर्ण ( अत एव ) भयङ्कर ( या-विषतुल्य ) समझा / [ जिस प्रकार मुंहके फूत्कारसे सन्धुक्षित ( बढ़ी हुई ) अग्नि धधककर इन्धनको जलाती है, उसी प्रकार दमयन्तीके विरहसे उत्पन्न कामाग्नि मलयवासी सर्प-समूहके विषैले फूत्कारसे सन्धुक्षित होनेसे विषतुल्य होकर इन्धनरूप मुझे जला रही है / काल ( यमराज ) की स्त्रीभूता दिशाके वायुको सर्प-समूहके विषैले फूत्कारसे मिश्रित होनेसे विषतुल्य होना उचित ही है। दमयन्तीकी विरहाग्निसे पीड़ित में दक्षिण वायुके बहने पर अत्यन्त सन्तापका अनुभव करता हूँ ] // 57 // प्रतिमासमसौ निशाकरः खग ! सङ्गच्छति यहिनाधिपम् | किमु तीव्रतरैस्ततः करैर्मम दाहाय स धैर्यतस्करैः 1 // 58 / / प्रतिमासमिति / असौ निशाकरो मासि मासि प्रतिमासम्प्रतिदर्शमित्यर्थः / वीप्सायामव्ययीभावः / दिनाधिपं सूर्य सङ्गच्छति प्राप्नोतीति यत्ततः प्राप्तेः स निशाकरः तीव्रतरैरत एव धैर्यतस्करैर्मम धैर्यहारिभिः करैः सौरैः तत आनीतैः मम दाहाय सङ्गच्छतीत्यनुषङ्गः, किमुशब्द उत्प्रेक्षायाम् / अत्र सङ्गमनस्य दाहार्थत्वोत्प्रेक्षणात् फलोत्प्रेक्षा // 58 // हे हंस ! वह प्रसिद्धतम चन्द्रमा जो प्रतिमास ( अमावस्याको) सूर्यके साथ सङ्गत होता है, उससे अत्यन्त तीक्ष्ण एवं धैर्यनाशक किरणोंसे मुझे जलानेके लिये समर्थ होता है क्या ? [ लोकमें स्वयं किसीका अपकार करनेमें असमर्थ व्यक्ति दूसरे प्रबल व्यक्तिकी सहायता लेकर अपकार करनेमें जिस प्रकार समर्थ होता है, उसी प्रकार स्वयं शीतल प्रकृति होनेसे मुझे सन्तप्त करनेमें असमर्थ चन्द्रमा प्रत्येक मास की अमावस्या तिथिके सूर्यसे
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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