SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 106 नैषधमहाकाव्यम्। सङ्गत होनेसे तीक्ष्ण किरणोंवाला होकर मुझ विरहीको * सन्तप्त करता है, ऐसा ज्ञात होता ] है // 58 // कुसुमानि यदि स्मरेषवो न तु वकं विषवल्लिजनानि तत् / हृदयं यदमुमुहन्नमूर्मम यचातितमामतीतपन् // 56 / / कुसुमानीति / स्मरेषवः कुसुमान्येव यदि न तु वज्रमशनिः सद्योमरणाभावा. दिति भावः / तत्तथा अस्तु किन्तु विषवल्लिजानि विषलतोत्पन्नानि / यद्यस्मादमूः स्मरेषवः 'पत्री रोप इषुर्द्वयोरि'ति स्त्रीलिङ्गता, मम हृदयममूमुहन् अमूर्च्छयन् मुह्यतेौँ चङ्, यद्यस्मादतितमामतिमात्रमव्ययादाम्प्रत्ययः। अतीतपन् तापयन्तिस्म, तपती चङमोहतापलक्षणविषमकार्यदर्शनाद्विषवल्लिजत्वोत्प्रेक्षा // 59 // ___ यदि काम-बाण पुष्प है, वज्र नहीं है तो वे विषलतासे उत्पन्न ( पुष्प ) हैं, (अथवाकामबाण वज्र ही है, पुष्प नहीं है, यदि यह कथन लोकप्रसिद्धिसे विरुद्ध है तो वे विषलतासे उत्पन्न पुष्प हैं ) क्योंकि इन कामबाणोंने मेरे हृदयको मोहित कर दिया तथा अत्यन्त सन्तप्त कर दिया। ( अत एव कामबाण यदि वज्र नहीं पुष्प ही है तो विषलता से उत्पन्न पुष्प है, अन्यथा उनमें मोहकत्व एवं सन्तापकत्व होना सम्भव नहीं है ) // 59 // तदिहानवधौ निमज्जतो मम कन्दर्पशराधिनीरधौ / भव पोत इवावलम्बनं विधिनाऽकस्मिकसृष्टसन्निधिः / / 60 / / तदिति / तत्तस्मादिहास्मिन्ननवधौ अपारे कन्दर्पशरैर्य आधिर्मनोव्यथा 'पुंस्याधिर्मानसी व्यथे'त्यमरः / तस्मिन्नेव नीरधौ समुद्रे निमजतो अन्तर्गतस्य मम विधिना देवेनाकस्मादकाण्डे भवमाकस्मिकमध्यात्मादित्वात् ठक, अव्ययानाम्भमात्रे टिलोपः तद्यथा तथा सृष्टसन्निधिः सन्निधानं भाग्यादागत इत्यर्थः। त्वं पोतो यानपात्रमिव 'यानपात्रन्तु पोत' इत्यमरः / अवलम्बनं भव // 60 // - इस कारण ( हे हंस ! कामबाणजन्य पीडारूपी अथाह समुद्रमें डूबते हुए मेरे दैवसे अकस्मात् देखे गये सामीप्यवाला ( भाग्यवश सहसा समीपमें प्राप्त तुम ) जहाजके समान अवलम्बन होवो / [ अथाह समुद्रमें डूबते हुए व्यक्तिके लिये भाग्यवश देखा गया जहाज जिस प्रकार अवलम्बन होकर डूबनेसे उसकी रक्षा करता है, उसी प्रकार अनाथ कामपीड़ामें डूबते हुए मेरे लिए भाग्यवश अकस्मात् समीपमें आये हुए तुम मेरा अवलम्बन होवो अर्थात् दमयन्तीके साथ सङ्गम कराकर काम-पीडासे मेरी रक्षा करो] / / 60 / / अथवा भवतः प्रवत्तेना न कथं पिष्टमय पिनाष्ट नः / स्वत एव सतां पराथेता ग्रहणानां हि यथा यथाथता / / 61 / / अथवेति / अथवा इयं नोऽस्माकं सम्बन्धिनी 'उभयप्राप्ती कर्मणीति नियमात् कर्तरि कृयोगे वष्ठीनिषेधेऽपि शेषषष्ठीपर्यवसानात् कर्थलाभः / भवतः 'उभयप्राप्ती कर्मणी'ति षष्ठी, प्रवर्त्तना प्रेरणा 'ण्यासश्रन्थो युच', कथं पिष्टं न पिनष्टि ? स्वतः
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy