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________________ 104 नैषधमहाकाव्यम् / शतशः श्रुतिमागतैव सा त्रिजगन्मोहमहौषमिर्मम | अधुना तव शंसितेन तु स्वहशैवाधिगताममि ताम् / / 54 // शतश इति / त्रिजगतः त्रैलोक्यस्य मोहे सम्मोहने महौषधिः महौषधमिति रूपकम् / सा दमयन्ती शतशो मम श्रुतिं श्रोत्रमागतैव अधुना तव शंसितेन कथनेन तु स्वदृशा मम दृष्टयैवाधिगतां दृष्टामवैमि साक्षाद् दृष्टां मन्ये / आप्तोक्तिप्रामाण्यादिति भावः // 54 // तीनों लोकोंको मोहित करनेके लिए महौषधिरूपिणी उस (दमयन्ती) को मैंने सैकड़ों बार सुना है, तथा तुम्हारे इस कथन (2 / 17-39 ) से तो उस ( दमयन्ती ) को अपने नेत्रोंसे ही देखता हुआ समझ रहा हूँ // 54 / / अखिलं विदुषामनाविलं सुहृदा च स्वहृदा च पश्यताम् / सविधेऽपि न सूक्ष्मसाक्षिणी वदनालकृतिमात्रमक्षिणी / / 55 / / अथ स्वदृष्टरप्याप्तहष्टिरेव गरीयसीत्याह-अखिलमिति / सहृदा आप्तमुखेन स्वहृदा स्वान्तःकरणेन च सुहृद् ग्रहणं तद्वत्सुहृदः श्रद्धयत्वज्ञापनार्थमखिलं कृत्स्नमा र्थमनाविलमसन्दिग्धम् अविपर्यस्तं यथा तथा पश्यतामवधारयतां विदुषां विवेकिनां सविधे पुरोऽपि न सूक्ष्मसाक्षिणी असूक्ष्मार्थदर्शिनी 'सुप्सुपे'ति समासः / अक्षिणी वदनालङ्कृतिमात्रं न तु दूरसूक्ष्मार्थदर्शनोपयोगिनीत्यर्थः // 55 // __मित्रके द्वारा तथा अपने हृदयसे सब वस्तु-समूहको प्रत्यक्ष देखते हुए विद्वानोंके ( अतिशय ) निकटस्थ ( कज्जलादि पदार्थ) को भी नहीं देखनेवाले नेत्रद्वय केवल मुखका अलङ्कारमात्र है ( अथवा-........"नेत्रद्वय अलङ्कारमात्र नहीं है ? अर्थात् अलङ्कारमात्र ही है ) / [जो नेत्र अपने अतिशय निकटस्थ कज्जल आदि पदार्थोंको भी नहीं देखते वे नेत्र दूरस्थ पदार्थको कैसे देख सकते हैं ?' अत एव आगम तथा अनुमानसे स्वयं या मित्र के द्वारा देखी गयी वस्तुको ही वास्तविक देखी गयी मानना ठीक है, इस प्रकार तुमने दमयन्तीको देख लिया ( 2 / 40 ) तो मैं भी मानो उसे देखी गयी ही मानता हूँ ] // 55 // अमितं मधु तत्कथा मम श्रवणप्राघुणकीकृता जनैः / मदनानलबोधनेऽभवत् खग धाय्या धिगधैर्यधारिणः // 6 // अमितमिति / हे खग ! जनैः विदर्भागतजनैः मम श्रवणप्राघुणकीकृता कर्णातिथीकृता तद्विषयीकृतेत्यर्थः / 'आवेशिकः प्राघुणक आगन्तुरतिथिस्तथे ति हलायुधः। अमितमपरिमितं मधु क्षौद्रं तद्वदतिमधुरेत्यर्थः / तत्कथा तद्गुणवर्णना अधैर्यधारिणोऽत्यन्ताधीरस्य मम मदनानलबोधने मदनाग्निप्रज्वलने धाय्या सामिधेनी भवेत् 'ऋक् सामिधेनी धाय्या च या स्यादग्निसमिन्धने' / इत्यमरः / 'पाय्यसानाय्ये' त्यादिना निपातः / धिक वाक्यार्थो निन्द्यः / अत्र तत्कथायाः धाय्यात्मना प्रकृतमदनानीन्धनोपयोगात् परिणामालङ्कारः, 'आरोग्यमाणस्य प्रकृतोपयोगित्वे परिणाम' इत्यलङ्कारसर्वस्वकारः॥ 56 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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