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________________ प्रथमः सर्गः। कम्प्राणि चवलानि विधाय कथासु शिष्यध्वं कथामात्रशेषा भवत ! कुत्रापि पित्रोरदर्शनाद् नियध्वं, प्राप्तकाले लोट् , मरणकालः प्राप्त इत्यर्थः / इतीति इत्युक्रवेत्यर्थः। गम्यमानार्थवादप्रयोगः / प्रमील्य मूग्छों प्राप्य स हंसः सूतस्य दयाभावात्प्र. वहतो नृपस्याश्रमः सेकाद् बुबुधे संज्ञा लेभे / प्रायेणात्र स्वभावोक्तिरूह्या // 142 // (इस प्रकार प्रियाको लक्ष्य कर कहनेके वाद हंस अपने पुन्नोंको लक्ष्य कर कहता है-) हे पुत्रो ! 'चूं धूं करते हुए चिरकालतक किसे बुलाकर ( भोजन-पदार्थ मांगोगे ) ? तथा मुखोंको कॅपाते हुए (बोलना सीखोगे ? अर्थात् किसोसे नहीं, अतएव ) कथाशेष हो (मर) जावोगे' ऐसा कह मूच्छित होकर वह हंस ( दयाके कारण ) नीचे बहते हुए राजा (नक) के भोसके द्वारा भींगनेसे होश में आया। [उक्त वचन कहते कहते हंस मूञ्छित हो गया, तथा नलने उस हंसके करुण विलापसे दयाद्रं हो इतने आँसू गिराये कि उसीके प्रवाइसे भोंगा हुआ हंस होशमें आ गया। यहाँ पर हंसने बच्चेसे भोजन मांगने तथा बोलना सीखने की बात नहीं कही है, किन्तु दुःखातिशयके कारण भाषी ही बात कह सका है, ऐसा कहने से यहाँ करुणरस विशेष पुष्ट होता है। अथवा-'चं चूं' करते हुए किसे बुलाकर तथा कंपते हुए मुखको किसके प्रति कर के गोष्ठी आदिमें बोलना सीखोगे ? अर्थात माता पिताकी मृत्यु हो जानेसे तुम्हें समामें बोलना सिखाकर कोन चतुर करेगा ?.... ] // इत्थममुं विलपन्तममुञ्चद्दीनदयालुतयाऽवनिपालः / रूपमदशि धृतोऽसि यदर्थं गच्छ यथेच्छमथेत्यभिधाय / / 143 / / __ अत्र सर्वत्र 'भिन्नसर्गान्तरिति काव्यलक्षणाद्वृत्तान्तरेण श्कोकद्वयमाह-इस्थ. मित्यादिना। इत्थं विलपन्तं परिदेवमानममुं हंसमवनिपालो नलो दीनेष्वार्तेषु दयालुतया कारुणिकतया रूपमाकृतिरदर्शि अपूर्वत्वादवलोकितं, यस्मै यदर्थ रूप. दर्शनार्थमेव तो गृहीतोऽसि, अथ यथेच्छं गच्छेत्यभिधाय अमुश्चत् मुक्तवान् / 'दोधकवृत्तमिदम्भभभा गावि'ति लक्षणात् // 143 // इस प्रकार (11135-142 ) विलाप करते हुए इस हंसको ( मैंने ) जिस (रूपको देखने ) के लिए तुम्हें पकड़ा था, वह रूप देख लिया, अब तुम इच्छानुसार ( जहाँ चाहो, वहाँ) बावो' ऐसा कहकर दीनदयालु होनेसे राजा नबने छोड़ दिया // 143 / / आनन्दजाअभिरनुनियमाणमार्गान् प्राकशोकनिर्गलितनेत्रपयःप्रवाहान् / चक्रे स चक्रनिभचक्रमणच्छलेन नीराजनां जनयतां निजबान्धवानाम् / / मानन्देति / हंसः चक्रनिमचङक्रमणस्य मण्डलाकारभ्रमणस्य छलेन नीराजनाअनयतां कुर्वता निजबान्धवानां 'बन्धमुक्त बान्धवा नीराजयन्तीति समाचारः। प्राममोचनापूर्व शोकेन निगलिता निःसृता नेत्रपयःप्रवाहाः बाष्पपूरास्तानानन्दजा. अभिरानन्दबाप्पैरनुस्रियमाणमार्गान् अनुगम्यमानमार्गाश्च कृतवान् / अत्र परिणां स्वभावसिद्धं बन्धमुक्तं स्वयूथ्यभ्रमणं छलशब्देनापगुस्य तत्र नीराजनात्वारोपाइपह्न
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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