________________ 48 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा जाता है। "कुन्दकुन्द ने द्रव्य की परिभाषा के सन्दर्भ में उमास्वाति के सभी लक्षणों को स्वीकार कर लिया है। तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति की विशेषता यह है कि उन्होंने 'गुण पर्यायवत् द्रव्य' कहकर जैनदर्शन के भेद-अभेदवाद को पुष्ट किया है। यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र में द्रव्य की यह परिभाषा भी वैशेषिक सूत्र के 'द्रव्यगुणकर्मभ्योऽर्थान्तरम् स सत्ता' (1/2/8) नामक सूत्र के निकट ही सिद्ध होती है। उमास्वाति ने इस सूत्र में कर्म के स्थान पर पर्याय को रख दिया है। जैनदर्शन के सत् सम्बन्धी सिद्धान्त की चर्चा में हम यह स्पष्ट कर चुके हैं कि द्रव्य या सत्ता परिवर्तनशील होकर भी नित्य है। परिणमन यह द्रव्य का आधारभूत लक्षण है, किन्तु इसकी प्रक्रिया में द्रव्य अपने स्वरूप का परित्याग भी नहीं करता है। स्व-स्वरूप का परित्याग किये बिना विभिन्न अवस्थाओं को धारण करने के कारण ही द्रव्य को नित्य कहा जाता है, किन्तु प्रतिक्षण उत्पन्न होनेवाली और नष्ट होनेवाली पर्यायों की अपेक्षा से उसे अनित्य कहा जाता है। उसे इस प्रकार भी समझाया जा सकता है कि मृत्तिका अपने स्व-जातीय धर्म का परित्याग किये बिना घट आदि को उत्पन्न करती है। घट की उत्पत्ति में पिण्ड का विनाश होता है और जब तक पिण्ड विनष्ट नहीं होता तब तक घट उत्पन्न नहीं होता, किन्तु इस उत्पाद और व्यय में भी मृत्तिका-लक्षण यथावत् बना रहता है। वस्तुतः कोई भी द्रव्य अपने स्व-लक्षण, स्व-स्वभाव अथवा स्व-जातीय धर्म का परित्याग नहीं करता है। द्रव्य अपने गुण या स्व-लक्षण की अपेक्षा से नित्य होता है, क्योंकि स्व-लक्षण का त्याग सम्भव नहीं है। यह स्व-लक्षण ही वस्तु का नित्य पक्ष होता है। इस स्व-लक्षण का त्याग किये बिना वस्तु जिन विभिन्न अवस्थाओं को प्राप्त होती है, यह पर्याय कहलाती हैं। यह परिवर्तनशील पर्याय ही द्रव्य का अनित्य पक्ष है। इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि द्रव्य अपने स्व-लक्षण या गुण की अपेक्षा से नित्य और अपनी पर्याय की अपेक्षा से अनित्य कहा जाता है। उदाहरण के रूप में जीवद्रव्य अपने चैतन्य गुण का कभी परित्याग नहीं करता, किन्तु अपने चेतना लक्षण का परित्याग किए बिना वह देव, मनुष्य, पशु इन विभिन्न योनियों को अथवा बालक, युवा, वृद्ध आदि अवस्थाओं को प्राप्त होता है। जिन गुणों का परित्याग नहीं किया जा सकता, वे ही गुण वस्तु के स्व-लक्षण कहे जाते हैं। जिन गुणों अथवा अवस्थाओं का परित्याग किया जा सकता है, वे पर्याय कहलाती हैं। पर्याय बदलती रहती हैं, किन्तु गुण वही बना रहता है। ये पर्याय भी दो प्रकार की कही गयी हैं- 1. स्वभाव पर्याय और 2. विभाव पर्याय / जो पर्याय या अवस्थाएँ स्व-लक्षण के निमित्त से होती हैं वे स्वभाव-पर्याय कहलाती हैं और जो अन्य निमित्त से होती हैं वे विभाव-पर्याय कहलाती हैं। उदाहरण के रूप में ज्ञान और दर्शन (प्रत्यक्षीकरण) सम्बन्धी विभिन्न अनुभूतिपरक अवस्थायें आत्मा की स्वभाव पर्याय हैं। क्योंकि ये आत्मा के स्व-लक्षण 'उपयोग' से फलित होती हैं, जब कि क्रोध आदि कषाय