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________________ जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा हैं। सर्वप्रथम द्रव्य की परिभाषा उत्तराध्ययनसूत्र में है। उसमें 'गुणानां आसवो दव्वो' (28/6) कहकर गुणों के आश्रय स्थल को द्रव्य कहा गया है, इस परिभाषा में द्रव्य का सम्बन्ध गुणों से माना गया है, किन्तु इसके पूर्व गाथा में यह भी कहा गया है कि द्रव्य, गुण और पर्याय सभी को जानने वाला ज्ञान है (उत्तराध्ययनसूत्र 28/5) / उसमें यह भी माना गया है कि गुण द्रव्य के आश्रित रहते हैं और पर्याय गुण और द्रव्य-दोनों के आश्रित रहती हैं। इस परिभाषा का तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर हम यह पाते हैं कि इसमें द्रव्य, गुण और पर्याय में आश्रय-आश्रयी सम्बन्ध माना गया है। यह परिभाषा भेदवादी न्याय और वैशेषिक दर्शन के निकट है। द्रव्य की दूसरी परिभाषा 'गुणानां समूहो दव्वो' के रूप में भी की गयी है। इस परिभाषा का समर्थन तत्त्वार्थसूत्र की 'सर्वार्थसिद्धि' नामक टीका (५/२/पृ. 267/4) में आचार्य पूज्यपाद ने किया है। इसमें द्रव्य को 'गुणों का समुदाय' कहा गया है, जहाँ प्रथम परिभाषा द्रव्य और गुण में आश्रय-आश्रयी सम्बन्ध के द्वारा भेद का संकेत करती है, यह परिभाषा वैशेषिक सूत्रकार महर्षि कणाद के अधिक निकट है, वहाँ यह दूसरी परिभाषा बौद्ध-परम्परा के द्रव्य-लक्षण के अधिक समीप प्रतीत होती है, क्योंकि दूसरी परिभाषा के अनुसार गुणों से पृथक् द्रव्य का कोई अस्त्वि नहीं माना गया / इस द्वितीय परिभाषा में गुणों के समुदाय या स्कन्ध को ही द्रव्य कहा गया है। यह परिभाषा गुणों से पृथक् द्रव्य की सत्ता न मानकर गुणों के समुदाय को ही द्रव्य मान लेती है। इस प्रकार यद्यपि ये दोनों ही परिभाषायें जैन चिन्तनधारा में ही विकसित हैं, किन्तु एक पर वैशेषिक-दर्शन का और दूसरी पर बौद्ध-दर्शन का प्रभाव है। ये दोनों परिभाषायें जैन-दर्शन की अनेकांतिक दृष्टि का पूर्ण परिचय नहीं देतीं, क्योंकि एक में द्रव्य और गुण में भेद माना गया है तो दूसरी में अभेद, जब कि जैन दृष्टिकोण भेद-अभेद मूलक है। उमास्वाति केतत्त्वार्थसूत्र के सर्वार्थसिद्धमान्य पाठ में 'सत् द्रव्यलक्षणं' (5/29) कहकर सत् को द्रव्य का लक्षण बताया है। इस परिभाषा से यह फलित होता है कि द्रव्य का मुख्य लक्षण अस्तित्व है। जो अस्तिवान् है, वही द्रव्य है। इसी आधार पर यह कहा गया है कि जो त्रिकाल में अपने स्वभाव का परित्याग न करे उसे ही सत् या द्रव्य कहा जा सकता है। तत्त्वार्थसूत्र (5/29) में उमास्वाति ने एक ओर द्रव्य का लक्षण सत् बताया तो दूसरी ओर सत् को उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक बताया / अतः द्रव्य को भी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक कहा जा सकता है। साथ ही उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र (5/38) में द्रव्य को परिभाषित करते हुए उसे गुण, पर्याय से युक्त भी कहा है। आचार्य कुन्दकुन्दने ‘पंचास्तिकायसार' और 'प्रवचनसार' में इन्हीं दोनों लक्षणों को मिलाकर द्रव्य को परिभाषित किया है। पंचास्तिकायसार' (10) में वे कहते हैं कि 'द्रव्य सत् लक्षण वाला है।' इसी परिभाषा को और स्पष्ट करते हुए प्रवचनसार (95-96) में वे कहते हैं "जो अपरित्यक्त स्वभाव वाला उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य से युक्त गुण पर्याय सहित है उसे द्रव्य कहा
SR No.032751
Book TitleJain Darshan Me Dravya Gun Paryaya ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2011
Total Pages86
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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