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________________ 18 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा यह भी कहते हैं कि बोध से सत्ता को और सत्ता से बोध को पृथक् नहीं किया जा सकता। यदि हमें आत्मा का स्वतः बोध होता है तो उसकी सत्ता निर्विवाद है। पाश्चात्य विचारक देकार्त ने भी इसी तर्क के आधार पर आत्मा केअस्तित्व को सिद्ध किया है। वह कहता है कि सभी के अस्तित्व में संदेह किया जा सकता है, परन्तु संदेहकर्ता के अस्तित्व में संदेह करना तो सम्भव नहीं है, संदेह का अस्तित्व संदेह से परे है। संदेह करना विचार करना है और विचारक केअभाव में विचार नहीं हो सकता। 'मैं विचार करता हूँ', अतः 'मैं हूँ' / इस प्रकार देकार्त के अनुसार भी आत्मा का अस्तित्व स्वयं-सिद्ध है। आत्मा अमूर्त है, अतः उसको उस रूप में तो नहीं जान सकते जैसे पट आदि वस्तुओं का इन्द्रिय प्रत्यक्ष के रूप में ज्ञान होता है। लेकिन इतने मात्र से उसका निषेध नहीं किया जा सकता। जैन आचार्यों ने इसके लिए गुण और गुणी का तर्क दिया है। घट आदि जिन वस्तुओं को हम जानते हैं, उनका भी यर्थाथ बोध प्रत्यक्ष नहीं हो सकता, क्योंकि हमें जिनका बोध प्रत्यक्ष होता है, वह घट के रूपादि गुणों का प्रत्यक्ष है। लेकिन घट मात्र रूप नहीं है, वह तो अनेक गुणों का समूह है जिन्हें हम नहीं जानते, रूप (आकार) तो उनमें से एक गुण है। जब रूपगुण के प्रत्यक्षीकरण को घट का प्रत्यक्षीकरण मान लेते हैं और हमें कोई संशय नहीं होता, तो फिर ज्ञानगुण से आत्मा का प्रत्यक्ष क्यों नहीं मान लेते। आधुनिक वैज्ञानिक भी अनेक तत्त्वों का वास्तविक बोध प्रत्यक्ष से नहीं कर पाते हैं जैसे ईथर; फिर भी कार्यों केआधार पर उनका अस्तित्व मानते हैं एवं उनकेस्वरूप का विवेचन भी करते हैं। फिर आत्मा के चेतनात्मक कार्यों के आधार पर उसके अस्तित्व को क्यों न स्वीकार किया जाये ? वस्तुतः आत्मा या चेतना के अस्तित्व का प्रश्न महत्त्वपूर्ण होते हुए भी विवाद का विषय नहीं है। भारतीय चिन्तकों में चार्वाक एवं बौद्ध तथा पाश्चात्य चिन्तकों में ह्यूम, जेम्स आदि विचारक आत्मा का निषेध करते हैं। वस्तुतः उनका निषेध आत्मा के अस्तित्व का निषेध नहीं, वरन् उसकी नित्यता का निषेध है। वे आत्मा को एक स्वतन्त्र मौलिक तत्त्व मानने का निषेध करते हैं। बौद्ध अनात्मवाद की प्रतिस्थापना में आत्मा (चेतना) का निषेध नहीं करते, वरन् उसकी नित्यता का निषेध करते हैं। ह्यूम भी अनुभूति से भिन्न किसी स्वतन्त्र आत्म-तत्त्व का ही निषेध करते हैं। उद्योतकर का 'न्यायवार्तिक' में 1. वही, 3/2/21; तुलना कीजिए-आचारांग 1/5/5 2. पश्चिमी दर्शन, पृ. 106 विशेषावश्यकभाष्य, 1558
SR No.032751
Book TitleJain Darshan Me Dravya Gun Paryaya ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2011
Total Pages86
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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