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________________ जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा आत्मा का अस्तित्व : - जैन-दर्शन में प्रत्येक जीव या आत्मा को एक स्वतन्त्र तत्त्व या द्रव्य माना गया है। जहाँ तक हमारे आध्यात्मिक जीवन का प्रश्न है आत्मा के अस्तित्व पर शंका करके आगे बढ़ना असम्भव है। जैनदर्शन में आध्यात्मिक विकास की पहली शर्त आत्मविश्वास है। विशेषावश्यकभाष्य के गणधरवाद में आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए निम्न तर्क प्रस्तुत किये गये हैं (1) जीव का अस्तित्व जीव शब्द से ही सिद्ध है, क्योंकि असत् की कोई सार्थक संज्ञा ही नहीं बनती। (2) जीव है या नहीं, यह सोचना मात्र ही जीव की सत्ता को सिद्ध करता है। देवदत्त जैसा सचेतन प्राणी ही यह सोच सकता है कि वह स्तंभ है या पुरुष / (3) शरीर स्थित जो यह सोचता है कि "मैं नहीं हूँ" वही तो जीव है। जीव केअतिरिक्त संशयकर्ता अन्य कोई नहीं है। यदि आत्मा ही न हो तो ऐसी कल्पना का प्रादुर्भाव ही कैसे हो कि 'मैं हूँ या नहीं हूँ ? जो निषेध कर रहा है वह स्वयं ही आत्मा है। संशय के लिए किसी ऐसे तत्त्व के अस्तित्व की अनिवार्यता है जो उसका आधार हो / बिना अधिष्ठान के कोई विचार या चिन्तन सम्भव नहीं हो सकता। संशय का अधिष्ठान कोई न कोई अवश्य होना चाहिए / भगवान महावीर गौतम से कहते हैं, हे गौतम ! यदि कोई संशयकर्ता ही नहीं है तो "मैं हूँ" या "नहीं हूँ" यह संशय कहाँ से उत्पन्न होता है ? यदि तुम स्वयं अपने ही विषय में संदेह कर सकते हो तो फिर किसमें संशय न होगा। क्योंकि संशय आदि जितनी भी मानसिक और बौद्धिक क्रियाएँ हैं, वे सब आत्मा के कारण ही हैं। जहाँ संशय होता है, वहाँ आत्मा का अस्तित्व अवश्य स्वीकारना पड़ता है। वस्तुतः जो प्रत्यक्ष अनुभव से सिद्ध है, उसे सिद्ध करने के लिए किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं। आत्मा स्वयं सिद्ध है, क्योंकि उसी के आधार पर संशयादि उत्पन्न होते हैं। सुख-दुःखादि को सिद्ध करने के लिए भी किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं। ये सब आत्मपूर्वक ही हो सकते हैं। आचारांग सूत्र में कहा गया है कि जिसके द्वारा जाना जाता है, वही तो आत्मा है।' आचार्य शंकर ब्रह्मसूत्रभाष्य में ऐसे ही तर्क देते हुए कहते हैं कि जो निरसन कर रहा है वही तो उसका स्वरूप है। आत्मा के अस्तित्व के लिए स्वतः बोध को आचार्य शंकर भी एक प्रबल तर्क के रूप में स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं कि सभी को आत्मा के अस्तित्व में भरपूर विश्वास है, कोई भी ऐसा नहीं है जो यह सोचता हो कि "मैं नहीं हूँ"। अन्यत्र शंकर स्पष्ट रूप से 1. विशेषावश्यक भाष्य, 1575 3. जैनदर्शन, पृ. 154 5 ब्रह्मसूत्र, शंकर भाष्य, 3/1/7 2. वही, 1571 4. आचारांग सूत्र, 1/5/5/166 6. वही, 1/1/2
SR No.032751
Book TitleJain Darshan Me Dravya Gun Paryaya ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2011
Total Pages86
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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