________________ जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा करते हैं, अपितु उनको एक-दूसरे से समन्वित भी करते हैं। व्युत्पत्ति की दृष्टि से सत् शब्द सत्ता के अपरिवर्तनशील पक्ष को और द्रव्य शब्द परिवर्तनशील पक्ष को स्पष्ट करता है। क्योंकि द्रव्य शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए–'द्रवति इति द्रव्यम्' कहकर ही उसे परिभाषित किया जाता है। जैनाचार्यों ने सत् को द्रव्य का लक्षण कहकर द्रव्य के परिणामी नित्य होने की ही पुष्टि की है। तत्त्वार्थसूत्र में भी उमास्वाति ने 'सत् द्रव्य लक्षणम्' कहकर सत्ता को परिणामी नित्य मानने के अनेकान्तिक दृष्टिकोण को ही प्रस्तुत किया है। यहाँ हम सर्वप्रथम सत् के स्वरूप का विश्लेषण करेंगे, उसके बाद द्रव्यों की चर्चा करेंगे। सत् का स्वरूप: जैसा कि हमने पूर्व में सूचित किया है कि जैन दार्शनिकों ने सत्, तत्त्व और द्रव्य इन तीनों को पर्यायवाची माना है, किन्तु इनके शाब्दिक अर्थ की दृष्टि से इन तीनों में अन्तर है। सत् वह सामान्य लक्षण है, जो सभी द्रव्यों और तत्त्वों में पाया जाता है एवं द्रव्यों के भेद में भी अभेद को प्रधानता देता है। जहाँ तक तत्त्व का प्रश्न है, वह भेद और अभेद दोनों को अथवा सामान्य और विशेष दोनों को स्वीकार करता है। सत् में कोई भेद नहीं किया जाता, जब कि तत्त्व में भेद किया जाता है। जैन आचार्यों ने तत्त्वों की चर्चा के प्रसंग पर न केवल जड़ और चेतन द्रव्यों अर्थात् जीव और अजीव द्रव्यों की चर्चा की, अपितु आस्रव, संवर आदि द्वारा उनके पारस्परिक सम्बन्धों की भी चर्चा की है। तत्त्व की दृष्टि से न केवल जीव और अजीव में भेद माना गया अपितु जीवों में भी परस्पर भेद माना गया, वहीं दूसरी ओर आस्रव, बन्ध आदि के प्रसंग में उनके तादात्म्य या अभेद को भी स्वीकार किया गया। किन्तु जहाँ तक 'द्रव्य' शब्द का प्रश्न है वह सामान्य होते हुए भी द्रव्यों की लक्षणगत् विशेषताओं के आधार पर उनमें भेद करता है। 'सत्' शब्द सामान्यात्मक है, तत्त्व शब्द सामान्य-विशेष उभयात्मक है और द्रव्य विशेषात्मक है / पुनः सत् शब्द सत्ता के अपरिवर्तनशील पक्ष का, द्रव्य शब्द परिवर्तनशील पक्ष का और तत्त्व शब्द उभय-पक्ष का सूचक है। जैनों की नयों की पारिभाषिक शब्दावली में कहें तो सत् शब्द संग्रहनय का, तत्त्व नैगमनय का और द्रव्य शब्द व्यवहारनय का सूचक है। चूकि जैन-दर्शन भेद, भेदाभेद और अभेद तीनों को स्वीकार करता है, अतः उसने अपने चिन्तन में इन तीनों को स्थान दिया है। यद्यपि अपने व्युत्पत्तिपरक अर्थ की दृष्टि से सत् शब्द सत्ता केअपरिवर्तनशील, सामान्य एवं अभेदात्मक पक्ष का सूचक है और द्रव्य शब्द, परिवर्तनशील, विशेष एवं भेदात्मक पक्ष का सूचक है। किन्तु जैनधर्म के अनेकान्तवाद के सिद्धान्त की अपेक्षा से सत् अथवा द्रव्य को एकान्त परिवर्तनशील, विशेष या भेदात्मक नहीं कहा जा सकता है। सत् या द्रव्य के स्वरूप को लेकर भारतीय दार्शनिकों में मतैक्य नहीं है। कोई उसे