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________________ जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा सर्वार्थसिद्धिमान्य पाठ के अनुसार तत्त्वार्थ में उमास्वाति ने 'सत् द्रव्यलक्षणं' कहकर दोनों में अभेद स्थापित किया है फिर भी हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि जहाँ 'सत्' शब्द एक सामान्य अपरिवर्तनशील सत्ता का सूचक है वहाँ 'द्रव्य' शब्द विशेष परिवर्तनशील सत्ता का सूचक है। जैन आगमों के टीकाकार अभयदेवसूरि ने और उनके पूर्व तत्त्वार्थभाष्य (1/35) में 'उमास्वाति' ने 'सर्वं एकं सद् विशेषात्' कहकर सत् शब्द से सभी द्रव्यों के सामान्य लक्षण अस्तित्व को सूचित किया है। अतः यह स्पष्ट है कि सत् शब्द अभेद या सामान्य का सूचक है और द्रव्य शब्द विशेष का। यहाँ हमें यह भी स्मरण रखना चाहिये कि जैन दार्शनिकों की दृष्टि में सत् और द्रव्य शब्द में तादात्म्य सम्बन्ध है। सत्ता की अपेक्षा वे अभिन्न हैं; उन्हें एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है। क्योंकि सत् अर्थात् अस्तित्व के बिना द्रव्य भी नहीं हो सकता है। दूसरी ओर द्रव्य (सत्ता-विशेष) के बिना सत् की तथा सत् के बिना द्रव्य की और द्रव्य के बिना अस्तित्व की सत्ता नहीं हो सकती है। अस्तित्व या सत्ता की अपेक्षा से तो सत् और द्रव्य दोनों अभिन्न हैं। यही कारण है कि उमास्वाति ने सत् को द्रव्य का लक्षण कहा था। स्पष्ट है कि लक्षण और लक्षित भिन्न-भिन्न नहीं होते हैं। वस्तुतः सत् और द्रव्य दोनों में इनके व्युत्पत्तिपरक अर्थ की अपेक्षा से ही भेद है, अस्तित्व या सत्ता की अपेक्षा से भेद नहीं है। हम उनमें केवल विचार की अपेक्षा से भेद कर सकते हैं, सत्ता की अपेक्षा से नहीं। सत् और द्रव्य अन्योन्याश्रित हैं, फिर भी वैचारिक स्तर पर हमें यह मानना होगा कि सत् एक ऐसा लक्षण है जो विभिन्न द्रव्यों में अभेद की स्थापना करता है, किन्तु हमें यह भी ध्यान रखना चाहिये कि सत् द्रव्य का एकमात्र लक्षण नहीं है। द्रव्य में अस्तित्व के अतिरिक्त अन्य लक्षण भी हैं, जो एक द्रव्य को दूसरे से पृथक् करते हैं। अस्तित्व लक्षण की अपेक्षा से सभी द्रव्य एक हैं किन्तु अन्य लक्षणों की अपेक्षा से वे एक-दूसरे से पृथक् भी हैं। जैसे चेतना लक्षण जीव और अजीव में भेद करता है। द्रव्य में सत् लक्षण की अपेक्षा से अभेद और अन्य लक्षणों से भेद मानना, यही जैन-दर्शन की अनेकान्तिक दृष्टि की विशेषता है / अर्धमागधी आगम स्थानांग और समवायांग में जहाँ अभेद-दृष्टि के आधार पर जीव द्रव्य को एक कहा गया है, वहीं उत्तराध्ययन के ३६वें अध्याय में भेद-दृष्टि से जीव द्रव्य में भी भेद किये गये हैं। जहाँ तक जैन दार्शनिकों का प्रश्न है, वे सत् और द्रव्य दोनों ही शब्दों को न केवल स्वीकार 1. तत्त्वार्थसूत्र 5/29 2. (अ) स्थानांग 1/1 (ब), समवायांग 1/1
SR No.032751
Book TitleJain Darshan Me Dravya Gun Paryaya ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2011
Total Pages86
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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