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________________ ( 66 ) पूर्ति न की जा सके तो राज्य का लेना व्यर्थ है // 2 // वैश्य अपनी प्राय का बारहवां भाग राजा को इसलिए देते हैं कि वे मार्ग में लुटेरों द्वारा लूटे न जायँ। राजकीय अर्थरक्षकों द्वारा सुरक्षित होकर वे व्यापार के लिये यात्रा कर सकें // 3 // ग्वाले घी, तक श्रादि का तथा किसान अनाज का छठा भाग राजा को इसी उद्देश्य से देते हैं। जो राजा वैश्यों से उनकी सम्पूर्ण श्राय का अधिकांश भाग लेता है वह चोर है / इससे उसके इष्ट और पूर्त कर्मों का नाश होता है // 4, 5 // यदि राजा को कर देकर भी प्रजा को अपनी रक्षा के लिये अन्य उपाय का अवलम्बन करना पड़े और राजा से अतिरिक्त किन्हीं अन्य व्यक्तियों से उसकी रक्षा हो तो कर लेने वाले राजा को निश्चय ही नरक जाना पड़ता है / / 6 // महर्षियों ने प्रजा की आय के छठे भाग को प्रजा की रक्षा के लिए राजा का वेतन नियत किया है। इस लिये राजा यदि चोरों से प्रजा की रक्षा नहीं कर सकता तो उसे पाप होता है // 7 // यदि मैं तपस्या करके अभीप्सित योगशक्ति प्राप्त कर लूँ, पृथ्वी में मेरे अतिरिक्त दूसरा कोई शस्त्रधारी न रहे. तथा मैं अपूर्व समृद्धि से सम्पन्न हो सकूँ तभी मैं पृथ्वी के पालन की शक्ति से युक्त एकमात्र राजा हो सकता हूँ, क्योंकि उस दशा में अपने उत्तरदायित्व का पूर्ण निर्वाह कर सकने के कारण मुझे पाप का भागी न होना पड़ेगा ||8,6 // उन्नीसवाँ अध्याय गर्गजी के कथनानुसार श्रीदत्तात्रेय के निकट जाकर कार्तवीर्य अर्जुन ने उनका विधिवत् विशिष्ट पूजन किया। श्रीदत्तात्रेय ने अपने चरित्र को मद्यपान, स्त्री-सम्पर्क श्रादि से दूषित बताते हुए पहले तो अर्जुन को टालने का यत्न किया, किन्तु जब अर्जुन ने उन सब बातों को सुनने के बाद भी अपनी भक्तिदृढता दिखाई तब उन्होंने प्रसन्न हो वर मांगने का संकेत किया / अर्जुन ने धर्मपूर्वक प्रजा का सम्यक पालन कर सकने के निमित्त वर पाने के हेतु यह अभ्यर्थना की--"मैं दूसरे के मन की बात जान लू, युद्ध में कोई मेरा सामना न करसके / युद्ध के निमित्त मुझे बलशाली सहस्र वाहु प्राप्त हों और उन्हें मैं अनायास वहन कर सकूँ। पर्वत; अाकाश, जल, पृथ्वी और पाताल में कहीं भी मेरी गति का रोध न हो / यदि कभी मेरा वध हो तो मुझसे श्रेष्ठ पुरुष के हाथ हो / यदि कभी मैं उन्मार्ग पर जाने लगें तो मुझे सन्मार्गदर्शक उपदेशक प्राप्त हो / मुझे उत्तम अतिथि प्राप्त हों। सदा दान देते रहने पर भी मेरा धन कभी भी क्षीण न हो। मेरे स्मरणमात्र से मेरे सम्पूर्ण राष्ट्र में धन
SR No.032744
Book TitleMarkandeya Puran Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1962
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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