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________________ का अभाव दूर हो जाय / श्राप में मेरी अनन्य भक्ति बनी रहे" | श्रीदत्तात्रेय ने उक्त वरदान देते हुए अर्जुन को चक्रवर्ती सम्राट होने का आशीर्वाद दिया / घर लौटने पर बड़े समारोह से अर्जुन का राज्याभिषेक हुआ, जिसमें देव, मन्धर्व, अप्सरायें, ऋषि, मुनि तथा देश की जनता आदि सभी ने सोत्साह भाग लिया / अर्जुन ने राज्यासन पर आरूढ़ होते ही अधर्म का नाश और धर्म की रक्षा करने की घोषणा की। राज्य में अन्य लोगों को शस्त्र रखने की मनाही कर दी। वे स्वयं ही सबके धन, जन और जीवन की रक्षा करने लगे। उनके राज्य में सारी प्रजा अपने अधिकार के अनुसार अपने कर्तव्य का पालन करती हुई अपनी सर्वतोमुख उन्नति का साधन करती थी। किसी को कोई असन्तोष न था / सब लोग सुख-शांति के साथ जीवनयापन करते थे। उनके अादर्श राज्य को देख अङ्गिरा मुनि ने उनकी प्रशंसा में कहा था न नूनं कार्तवीर्यस्य गतिं यास्यन्ति पार्थिवाः। यज्ञैर्दानैस्तपोभिर्वा . संग्रामे चातिचेष्टितैः॥३४॥ यज्ञ, दान, तप, संग्राम, तथा पराक्रममें कोई राजा अर्जुन की तुलना न कर सकेगा। बीसवाँ अध्याय प्राचीनकाल में शत्रुजित नाम के एक बड़े धार्मिक राजा थे। उनके मृतध्वज नाम का एक पुत्र था / वह बड़ा बुद्धिमान् , बलवान् , रूपवान् , नीतिज्ञ तथा शस्त्र और शास्त्र में विशारद था। पातालपति नागराज अश्वतर के पुत्रों से उसकी बड़ी मित्रता थी। वे प्रतिदिन ऋतध्वज के यहां आते थे और दिन भर उसके साथ रहकर साम को अपने घर लौट जाते श्रे। एक दिन पिता के पूछने पर नागपुत्रों ने ऋतध्वज के साथ अपनी मित्रता की बात बतलायी तथा उसके गुणों की भूरि-भरि प्रशंसा की। नागराज ने कहाठीक है, पर यह तो बताओ कि ऐसे योग्य मित्र का तुम लोगों ने भी कभी कोई सत्कार किया ? तुम्हारे घर में उत्तम से उत्तम जो वस्तु हो उसे देकर तुम्हें अपने मित्र का सत्कार करना चाहिये / पुत्रों ने कहा--पिता जी! हम उन्हें क्या दे सकते हैं ? हमारे यहाँ ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो हमारे मित्र के घर विपुल मात्रा में न हो / हमारा मित्र समस्त वांछनीय वस्तुओं से सम्पन्न है / हां, उसका एक कार्य है, पर वह असाध्य है, हमारे मत से ईश्वर के अतिरिक्त अन्य कोई उस कार्य को नहीं कर सकता। पिता ने कहा-पुत्रों ! तुम्हारी यह धारणा ठीक नहीं है, बुद्धिमानों के लिए कोई कार्य असाध्य नहीं
SR No.032744
Book TitleMarkandeya Puran Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1962
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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