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________________ ( 40 ) संसार के अन्धकार-रूप आसव को पीने के कारण आपका वदन रक्तवर्ण हो जाता है / श्राप तीनों लोकों को प्रकाशित करने वाले किरणसमूह से शोभित होते हैं / श्राप अपने समस्त अश्वों से युक्त, अत्यन्त रुचिर, सुन्दर गति वाले, सुगठित तथा विस्तृत रथ पर बैठ कर जगत के कल्याणार्थ विचरण करते हैं / आप चन्द्रमा के अमृत रस से देवों तथा पितरों को तृप्त करते हैं / इस प्रकार स्तुति करते हुये विश्वकर्मा ने उन्हें सम्पूर्ण संसार का जन्मदाता, तीनों लोकों को पावन बनाने वाले तेज का श्रासद, समस्त जगत का प्रकाशक तथा विश्वकर्मा कहकर उनको नमस्कार किया है / इति सकलजगत्प्रसूतिभूतं त्रिभुवनपावनधामभूतम् / रविमखिलजगत्प्रदीपभूतं देवं प्रणतोऽस्मि विश्वकर्माणम् // राजा राज्यवर्धन की प्रजा ने सूर्य की आराधना कर उनकी दश सहस्र वर्ष लम्बी आयु बढ़वा ली और राजा ने भी भगवान् भास्कर की आराधना कर अपनी प्रजा की उतनी ही श्रायु बढ़वा ली। आयु की वृद्धि सूर्य देव की उपासना से आज भी शक्य और सम्भव है। क्योंकि शरीर के भीतर प्राण का सञ्चरण होना ही आयु है, और यह 'अन्नं वै प्राणाः' के अनुसार अन्न के अधीन है / अन्न वर्षा के अधीन है / वर्षा सूर्य के अधीन है / अतः शास्त्रों में बतायी विधि से सूर्य की उपासना द्वारा उनमें समुचित बल, वीर्य का प्राधान कर उनसे समयानुकूल सुवृष्टि प्राप्त की जा सकती है / सुवृष्टि से निर्दोष, पोषक, बलप्रद सदन्न पैदा कर उसके संयत उपयोग से शरीर और प्राण को सवल बना अायु को इच्छानुकूल अभिवृद्ध किया जा सकता है। सूर्यदेव के अनुकूल संवर्धन का सबसे श्रेष्ठ तथा सरल एवं सुन्दर साधन है अर्घ्यदान / यह प्रत्येक मानव का प्रतिदिन का कर्तव्य होना चाहिये / इससे सूर्य की प्रीति एवं पुष्टि का सम्पादन होता है / कारण कि सूर्य का शरीर एक दिव्य तेज है और दिव्य तेज का ईधन, उसकी उद्दीप्ति का साधन जल होता है। मनुष्य का दिया अय॑जल सर्य की किरणों द्वारा उनके विशाल विग्रह में प्रविष्ट हो उसे प्राप्यायित और उद्दीप्त बनाता है। वैसे तो उनकी सहस्रों किरणें सर्वदैव पृथ्वी से जल खींचकर उनके कलेवर को स्नेहसिक्त करती रहती हैं / पर अर्घ्यजल में कुछ अपूर्व विशेषता एवं असाधारण शक्ति होती है / वह मात्रा में स्वल्प होने पर भी गुणप्रचुर होता है। जैसे मुख से पी जाने वाली औषधि से इञ्जेक्शन से दी जाने वाली औषधि की मात्रा अल्प होने पर भी उसकी शक्ति अधिक होती है और वह नसों द्वारा बहुत शीघ्र ही शरीर में फैल जाती है, वैसे ही स्नान से शुचि एवं सूर्य में तन्मय मन वाले मानव की अञ्जलि का अर्घ्यजल थोड़ा होने पर भी बड़ा सारवान् होता है और वह सूर्य की किरण
SR No.032744
Book TitleMarkandeya Puran Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1962
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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